शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

मंज़र

तेरे दामन की जो ये दिलकश ख़ुश्बू है 
कितने ही फूलों की शहादत की दास्ताँ है...

उनके ज़ुल्मों से पामाल हो गए हम से कितने 
कैसे कह दूं जो उनका है वही मेरा पासबाँ है...

ख़ामोशी घुली है जो हवाओं में हर सिम्त
अमन का नहीं ये ज़िन्दा मुर्दों का कारवां है ...

ज़मी-आसमां, दस्त-ओ-पाख़ूँ, ख़ुदा एक हैं 
जाने क्यों सिख, हिन्दू तो कोई मुसलमां है...

हर शख़्श राज़ी है यहाँ क़तील बनकर 
दिल-ए-नादाँ तू फ़िर क्यूँ इतना परेशां है...





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