हमरे
गाँव मा याकै बिसम्भर कक्कू रहत है, खेती
किसानी करत रहैं मुला अब बुढ़ापे मा कुछौ नहीं सधत, घरैतिन के मरै के बाद नसा-पत्तिहू कम कई दिहिन है, मुला मुफत की मिलि जाए तौ अबहूँ हाथ मारि लेत हैं। पार साल
परधानी के अलेक्सन मा मुफत की पी कै बड़ी दुन्द काटेन। फिरौ हम सब उनकी बड़ी इज्जत
करित है, गांव मा पुरिखा-पुरनिहन मा अब बचै को है? बिसंभर कक्कू वइसे आदमी फिट हैं, गाँव मा
कहूं बिहाव- बरात होय, कक्कू खाना-पीना, हलवाइन का इन्तजाम बड़े नीके
द्याखत हैं औ जो कोई की गइया-भइंसी न लगती होंय तौ गाड़ा-जन्तुर, दवाइव देत हैं।
इधर छ-सात दिन ते देखि रहे हन कक्कू का भगवान जाने का होई गा है, कोई उनते 'जैराम कक्कू' कहि भर दे, सूधै गरियावै लागत हैं। हम सोचेन, कक्कू फिर ते नसा करै लाग का? परसादी बताएन- नसा-वसा कुछौ नहीं, बुढ़ऊ सिर्रिया गे हैं, औधेस फिर लाठी भांजि दिहिन होइहैं। हम सोचेन, अइसै कुछ भा होई।
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''''कनवा में शोभे बाली, जूड़ा पे लगा के जाली
चाल चलेली मतवाली, बगल वाली जान मारेली''''
हाँ...... यहै गाना रहै, आज औतार दद्दू की चक्की ते गोहूँ पिसाय के लौटित रहै कि हमका यहै फूहर गाना सुनाई परा, हम हुवैं सैकिल मा बिरिक मार दीन। हम सोचतै रहन कि औधेस हियैं होइहैं, तबहीं पाछे ते आवाज आई-" दद्दा पाँय लागी", हम कहेन- "खोस रहौ''। ई रहैं औधेस, बिसंभर कक्कू के सुपुत्तर।
जहाँ उम्मीद रहै, औधेस हुवैं मिले, पुरानी पकरिया तरे चउतरा पर। आजकल हियाँ चउतरा पर रोज तास की फड़ लागति है, गाँव के सब जवान-जट्ट लउंडे दिन्न भर तास ख्यालत हैं औ मोबैल पर यहे तना के फूहर-फूहर गाना सुनत हैं। करत-धरत कुछौ नहीं औ खवाब द्याखत हैं- 'सरकार चरन छुई के थरिया मा परसि कै सरकारी नऊकरी दई जाय'।
हम कहेन- कै औधेस, हम तुमका समझाए रहन, आज फिर हियैं?
बोले- अरे दद्दा, जादा नहीं खेलित, बस दस-बीस रूपइया, एत्तेहे मा दिन्न भर की मउज होई जात है।
हम कहेन- अच्छा यू बताओ कक्कू का फिर ते ठोंकि-पीट दीन्हेव का?
- अरे नहीं दद्दा, अम्मा के मरै का साल भर होई रहा है, दुई- एक बार की छोड़ि देव तौ हम उनपर कबहूँ हाथ नहीं उठावा।
- तौ कक्कू का होई का गा है? आजकल उनक्यार दिमाग कुछ ठीक नहीं लागत।
- का बताई दद्दा, अम्मा के मरै के बाद हमरे बियाहे खातिर बड़े परेसान रहैं, दुई-याक जगा बातौ चली मुला मामला सब भिन्डी होई गा।
- अच्छा काहे, अइस का होई गा?
- दद्दा, तेवारीपुर मा अजुध्यापरसाद के हुवां सब बात फैनल होई गै रहै, मुला तबहें याक घटना घटि गै, उनकी बिटेवा बिहाव करै ते मना कई दीन्हेस।
अब हमका रसु आवै लाग, पूछेन- काहे अइस काहे कीन्हेस?
- अरे दद्दा, आजकल यो टीबी सब बिगारे है, वहिमा कहूँ सुनि लीन्हेस..... अरे कउनौ मंतरी हैं,...... हाँ!, जैराम रमेस, उई कहत रहैं कि जउने घर मा टट्टीघर न होय हुवां बिटेवा बिहाव न करैं, बस यहै बात वा पकर लीन्हेस। बियाहे ते साफ मना कइ दीन्हेस। ई बात से बप्पा का बड़ा धक्का लाग। अब दद्दा आप तौ सब जनतै हौ। हम सब जने खुलेहे मा दिसा-मैदान जाइत है।
हम कहेन- पर सौचालय तौ परधान बनवायेन रहै ?
- दद्दा, अब एत्ता अनजान न बनौ, आपौ मऊज लई रहे हौ?
मन के भाव छिपावत भये हम कहेन, अरे नहीं औधेस, अइस बात नहीं है।
- तौ का आप रामचन्दर परधान के खेल नहीं जानत हौ? उई सौचालय कइसे बने, वहिमा का-का खेल भा, आप नहीं जनतेव? बस कउनौ तना याक ढाँचा खड़ा कई दीन गा रहै, औ राम कसम है जो एकौ दिन परयोग करै लायक रहा होय औ बप्पा का, का कही? बस एक पउवा दइ देव, जहाँ कहौ दस्कत करवा लेव। ऊ सौचालय तौ अब जलउनी लकड़ी औ कंडौ धरै लायक नहीं रहि गा।
- मुला कउनौ कक्कू ते दुआ-सलाम करत है तौ उई गरियावै काहे लागत हैं?
औधेस बोले- अरे न पूछौ दद्दा, उई मंतरी है न जैराम रमेस उनकी वजह ते पहिले हमार बिहाव कंडम भा, औ अब एक अउर फरमान सुनै मा आवा है कि जो कोऊ खुले मा दिसा-मैदान जाई वहिका जेल जायेक परी। बस, बप्पा जब ते या बात सुनेन है, उनका सदमा होई गा है, बिचारे रात-बिरात झाड़ा फिरै जात हैं औ कोई न कोई का साथै जरूर लई जात हैं कि कहूँ पुलिस वाले न पकरि लई जाएं। उनके दिमाग का, का कही जो उनते कउनौ ''जैराम''; कहि भर दे तौ सूधै गरियावत हैं।
हम कहेन चिंता न करौ सबते पहिले तौ करजा-पात लई कै टट्टीघर बनवाओ भगवान चाही तौ सब ठीक होई जाई औ तुम्हार बिहावौ होई जाई।
अब औधेस बोले- तौ दद्दा तुमहीं हमार कल्यान कई देव, दस-बीस हजार करजा दई देव।
जय जय जय जयराम जी, जय जय राम रमेश ।
जवाब देंहटाएंशौचालय से जोड़ते, बबलू शादी केस ।
बबलू शादी केस, ठेस लगती है भारी ।
शौचालय गर नहीं, रखेंगे सुता कुँवारी ।
मोबाइल दो बाँट, जमीने रक्खो लय लय ।
टॉयलेट गर नहीं, कुंवारा बबलू जय जय ।।
बहुत ख़ूब.... रविकर जी।
हटाएंमस्त लिखे हैं..हमरो बधाई कुबूल हो।
जवाब देंहटाएंक़ुबूल.... क़ुबूल तहेदिल से क़ुबूल, पाण्डे जी बहुत शुक्रिया आपका।
हटाएंहार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंरविकर जी, आज के युग में अवधी जैसी सिमटती क्षेत्रीय बोलियों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ता जा रहा है, क्षेत्रीय बोलियों में भारतीय मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू समाई रहती है। इसे बचाए रखने की छोटी सी कोशिश में आपके 'बड़े सहयोग' का आभार।
जवाब देंहटाएंअब्बल सोच आले के सीरी,
जवाब देंहटाएंतभौ भय गिरी गिरी.....
bahut achhe dixit ji apne ek samajik samsya ko jamini hakikay ke sath utaya hai......sadhuvad
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुक्रिया योगेश जी।
हटाएंटट्टी मंत्री का बढ़िया निपटाए दिए.........;)
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