शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

मैं हूँ एक सागर

मैं हूँ एक सागर,
प्रेम का !
लोग आते हैं मेरे पास
मैं उन्हें अपने में समेट लेता हूँ
वे मुझमें डूबते, उतराते.......किनारे 
विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करते......स्वेच्छा से
और अंत में मुझे मलिन समझकर चले जाते
जानकर कि यह मलिनता उन्हीं की है 
उदास ................
मैं रह जाता हूँ ठगा सा, देखता......
उन्हें जाते हुए
किसी नए आगंतुक की अब प्रतीक्षा नहीं 
किसी नए आगंतुक के आने से अब उत्साह नहीं
क्यों कि अंततः मुझे
मृदु होकर भी कटु
निर्मल होकर भी मलिन बनना पड़ता है
फ़िरभी लोग आयेंगे, मुझसे खेलेंगे
क्यों कि मैं सागर हूँ.......
प्रेम का

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