शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

हमपे जो गुज़री.......


कितना पाक था रिश्ता हमारा मगर,
रक़ीबों की दुनिया ने इक फ़ासला हमारे दरमियाँ बना दिया।
अभी तलक तो सब ठीक था मगर,
सोचता हूँ किन ख़ामियों ने मुझे बुरा इन्सां बना दिया।

लगाये तो फूलों के बगीचे ही मैंने,
बदकिस्मती ने मेरी, काँटों का गुलिस्ताँ बना दिया। 

ख़्वाब जो सच हो सकते थे यक़ीनन,
इस बेदर्द ज़माने ने अलिफ़-लैला की दास्ताँ बना दिया। 

ख़ामियों को उनकी इक ख़याल भी नहीं बख्शा मैंने,
ग़लतियों को हमारी,उन्होंने ख़ामियां बना दिया।

दर्द में डूबे इस दिल के लिए,
ख़ुशियों का इक मकां चाहा था मगर,
उस बेदर्द ने ग़म का आशियाँ बना दिया।

अपना दर्द कहते तो किसे और कैसे?
उन्हें खोने के डर ने मुझ ग़रीब को बेज़ुबां बना दिया।

तन्हाई में उनकी यादों के मेरे साथी,
ये अश्क़ भी मेरा साथ छोड़ चले,अब मुझे और तन्हां बना दिया।

दिल पे चोट लगी है कुछ ऐसी कि,
ज़ख्म तो शायद भर भी जाएँ,
क्या होगा जो ये ज़ख्म का निशाँ बना दिया।

बड़ी मुहौब्बत थी ज़िन्दगी से अब तक,
उनकी बेरुख़ी ने मौत को कितना आसाँ बना दिया।

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