रविवार, 29 जनवरी 2012

मुश्किल था इम्तेहान....


मुश्किल था इम्तेहान और बेख़ुदी का आलम
करना था जाने क्या,न जाने क्या कर आया


वो आये तेरी महफ़िल में, सच्ची बात जो कह दी
कह उठे लोग, कैसा बेहूदा सुख़नवर आया 


हमने भी मुहौब्बत की थी दिल-ओ-जान से
जाने क्या कमी थी के नतीजा सिफ़र आया 


जब भी पलटे ज़िन्दगी के पिछले पन्ने
हर अक्स-ओ-लफ़्ज़ बड़ा धुंधला नज़र आया


ये सच है के चेहरा मेरा, हसीं नहीं आप सा
फ़िर भी जज़्बा मेरा देखो,मैं बन-संवर आया


ये आलूदगी है दिल की मेरे या माजरा कुछ और
जो भी गुज़रा मेरे दिल से, रुख़ स्याह नज़र आया

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

अपनी क़लम नुकीली कर लूं...


अनगढ़े ख़्वाब न जाने कितने, दिल की मिट्टी में बोने हैं
ख़यालात न जाने कितने, उनके दिल में चुभोने हैं
अपने अंतस की धरती और ज़रा सी गीली कर लूं
चलूँ अपनी क़लम मैं और ज़रा सी नुकीली कर लूं...

आसान अगर हो तो, वो मुश्किल कैसी
दो पल में मयस्सर हो, तो वो मंज़िल कैसी
चलूँ अपनी राहें मैं और ज़रा सी पथरीली कर लूं
चलूँ अपनी क़लम मैं और ज़रा सी  नुकीली कर लूं.... 

बातों के झूठे सुर लोगों को भाते हैं
सच्चाई के शूल, दिल में गड़ जाते हैं
आवाज़ मैं अपनी कैसे इतनी सुरीली कर लूं
चलूँ अपनी क़लम मैं और ज़रा सी नुकीली कर लूं

शनिवार, 21 जनवरी 2012

दिल क्यूँ इतना परेशां है...

तेरे दामन की जो ये दिलकश ख़ुश्बू है 
कितने ही फूलों की शहादत की दास्ताँ है...

उनके ज़ुल्मों से पामाल हो गए हम से कितने 
कैसे कह दूं जो उनका है वही मेरा पासबाँ है...

ख़ामोशी घुली है जो हवाओं में हर सिम्त
अमन का नहीं ये ज़िन्दा मुर्दों का कारवां है ...

ज़मी-आसमां, दस्त-ओ-पा,ख़ूँ, ख़ुदा एक हैं 
जाने क्यों सिख, हिन्दू तो कोई मुसलमां है...

हर शख़्श राज़ी है यहाँ क़तील बनकर 
दिल-ए-नादाँ तू फ़िर क्यूँ इतना परेशां है...

रविवार, 15 जनवरी 2012

पदचिह्न..कोशिश का....


कुछ लोग मिले ....
सुख दिए 
बँटाये भी
कुछ दुःख भी 
पर बँटाये नहीं;
अच्छे लोग थे 
मैं भी ऐसा ही करता हूँ
यही नियति है l 
नि:स्तब्धता, नीरवता,अकेलापन
मेरे चिर-परिचित साथी
विश्वास है,ये मुझे कभी
धोखा नहीं देंगे
यह हताशा नहीं है
यही सत्य है
असफलता
कोई दोष नहीं है...
बस पदचिह्न है 
एक कोशिश का....

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

आपकी महफ़िल में पहुँचे.....


आपकी महफ़िल में पहुँचे हम ज़रा क्या देर से
ग़म नहीं जो मेरे हिस्से एक ख़ाली जाम आया...

मैंने सोचा बज़्म में कोई ऊँची बात कह दूँ
सोचा बहुत, दिल में मुसलसल बस तेरा ही नाम आया....

क़त्ल अरमां हो गए,आप ही के सामने
आप ही कहें, कैसे मेरा क़ातिलों में नाम आया...

यहाँ तक तो ठीक था,अफ़सोस तो ये है फ़क़त
मैयत का भी मेरे ज़िम्मे सारा इंतज़ाम आया

सोमवार, 2 जनवरी 2012

एक अजनबी से...

जब भी तेरा ख़याल आता है 
ज़ेहन में इक सवाल आता है 
मेरी गली से रोज़ ही गुज़रते हो 
फ़िर अजनबी से क्यों लगते हो 
दूर से देखता हूँ तो न जाने क्यूँ 

आदमी भले से लगते हो...
आने-जाने के तेरे जो ये सिलसिले हैं
दिल की ख़ामोशी में बड़े वलवले हैं
अपने ख़यालात को परवाज़ दी थी
इक दिन मैंने तुम्हें आवाज़ दी थी
ठिठके तो इक लम्हा,जाने क्यूँ न रुके
मेरी आवाज़ तुम शायद न सुन सके
इसका गिला न मुझे कोई शिकवा है
मेरे शहर की ही कुछ ऐसी हवा है
तेरे 
क़दमों  पे कोई क़दम नहीं रखता
मेरे ज़ख्मों पे कोई मरहम नहीं रखता
तेरी आँखों में इक तलाश नज़र आती है
तेरे अरमानों की लाश नज़र आती है
मेरे दर पर कभी ठहर कर देखो
मुझको भी कभी नज़र भर देखो
यक़ीनन अंजाम कुछ बेहतर मिलेगा
आने-जाने का सिलसिला तो क़यामत तक चलेगा.....

रविवार, 1 जनवरी 2012

हम भी देखेंगे...


हम भी अपनी दुआओं का असर देखेंगे
रहे गर तो हम भी कल शहर देखेंगे...

मुहौब्बत का पैग़ाम पहुंचा है कहाँ तलक
रब्त-ओ-रक़ाबत के दिलकश मंज़र देखेंगे...

हमने डाले हैं सफ़ीने बुलंद हौसलों से
कैसे रोकेगा हमें, समंदर देखेंगे.......

शमशीर के साए में पलती है ज़िन्दगी
कैसे चलते हैं दिल पे नश्तर देखेंगे....

हमने तो की है दुआ तेरी ख़ुशियों की  
बस इक उम्मीद से तेरी नज़र देखेंगे...

रात मुश्किल है यक़ीनन,कट ही जायेगी
ख़ुदा ने चाहा तो इक दिन सहर देखेंगे...

सुना है तेरी राहों में काँटे बहुत हैं
मुहौब्बत की ख़ातिर हम रहगुज़र देखेंगे...