बुधवार, 14 जनवरी 2015

कल्मष धो लें....

आप सभी को मकर संक्रांति की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं

नदी नहीं यह गंगा केवल,
जीवन का आधार यही।

सदियों से इस धरती पर ये,
जग की तारणहार रही।

बहती है भारत में जैसे,
अमृत की कोइ धार बही।

गंग मलिन जो करता उसको,
प्यार नहीं अंगार चही।

गंगा के निर्मल जल सा हम,
अंतस से निर्मल हो लें।

कर्कशता सब त्याग आज हम,
प्यार भरी वाणी बोलें।

अवसर है संक्रांति मकर का,
प्यार फ़िज़ाओं में घोलें।

महापर्व पर महाकुम्भ में,
जीवन का कल्मष धो लें।

रचनाकार- निर्दोष दीक्षित

विधा- लावणी छंद/कुकुभ छंद

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