मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

चुनावी मौसम


      मित्रों... सुहानी सर्दियाँ एक बार फ़िर से आ गई हैं...हवाएँ ख़ुशगवार हैं....सुहाना समां है, मन में नई उमंगें हैं, कुल मिलकर मौसम बड़ा रोमांटिक है....आप कहेंगे इसमें कौन सी नई बात है, सर्दियाँ तो हर साल आती हैं इसमें इतना मचलने की क्या ज़रुरत?
     
   भईया इस बार का मौसम बड़ा ख़ास है..... ये चुनावी मौसम है... और इस बार तो पूरे पांच साल तरसाया इसने.... इस चुनावी मौसम में मेरे जैसे आम मतदाता उम्मीद के बादल से चुनावी वादों की बरसात में किसी बरसाती मेंढक की तरह मस्त हैं.... भईया मैं तो अपनी जेब में बत्तीस रूपए और अपना वोट धरे, 'सब कुछ' पा लेने की तमन्ना लिए सीना फुलाए घूम रहा हूँ लेकिन थोड़ी कसक तो इस बात की है कि इस मुए चुनाव आयोग के कारण हमारे प्रिय प्रत्याशीगण दिल खोल के ख़र्चा नहीं कर पाते हैं और हमारे खाने-'पीने' की सहालग में ग्रहण लग जाता है। 

   सच तो ये है कि अब चुनावों में वो बात कहाँ, क्या ईको-फ्रैंडली चुनाव हुआ करते थे साहब... काग़ज़ के मतपत्र, कपड़े के झंडे-बैनर , दीवारों पर शुद्ध कोयले से लिखी चुनावी इबारतें और तो और सुरक्षा जवानों के हाथ में भी लकड़ी की बंदूकें हुआ करती थी... अब तो सब कुछ प्लास्टिक का है झंडे-बैनर से लेकर मतदान की मशीनें तक प्लास्टिक की हैं... प्लास्टिक से भरी इस दुनिया में 'धरती बचाओ-धरती-बचाओ' का गीत गाने वाले प्रदूषण बोर्ड वाले न जाने कहाँ पाए जाते हैं।
     
   हिन्दुस्तान में बे-रोज़गारी बढ़ाने में ज़्यादा न सही लेकिन थोड़ा योगदान चुनाव आयोग का भी है...ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब सक्षम/बाहुबली नेताओं की चौपाल में पिचके गाल वाले जवान बहुतायत में पाए जाते थे। इन रण-बाँकुरों का लालन-पालन विशेष तौर पर चुनावी समर के लिए किया जाता था, आम बोल-चाल में हम इन्हें चुनावी लठैत कहते हैं और यही इनका पूर्णकालिक रोज़गार था. इन योद्धाओं के स्थान-विशेष पर गोश्त भले ही न होता हो लेकिन इनमे मतपेटी को सिर पर उठाकर मीलों भागते हुए, मतदान केंद्र का क़िला फ़तेह करने का जज़्बा ज़रूर होता था। आज की स्थिति में चुनाव आयोग की सख़्ती के कारण इस क्षेत्र में भी कैरियर की संभावनाएं जाती रहीं।
     
   चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में मतदाताओं की फ़ोटो छापकर उन नौजवानों पर भी ज़ुल्म किया है जो फ़र्ज़ी वोट डालकर लोकतंत्र का पहला सबक़ लिया करते थे, मुझे याद है मतदान वाली शाम को पतली कमर वाले नौजवान छोकरे इकठ्ठा होकर मतदान में अपनी सफलता के क़िस्से सुनाकर अपनी मर्दानगी झाड़ा करते थे... पहला कहता- आज मैंने दो वोट डाले तो दूसरा हिक़ारत से कहता- बस! मैंने तो तीन डाले, तभी तीसरा बोल उठता- हुंह! तुमने तीन डाले तो कौन सा तीर मार दिया, मैंने भी तीन डाले और मेरा तो वोटर-लिस्ट में नाम भी नहीं था...इस तरह एक दिन के लिए ही सही नौजवान छोकरे ख़ुद को पराक्रमी समझकर ख़ुश हो लिया करते थे लेकिन इस मुए चुनाव आयोग से उनकी ख़ुशी भी न देखी गई।

   चुनावी सुधार के इस दौर में आजकल दो बिंदु बड़ी चर्चा का विषय बने हुए है पहला 'राइट टु रिजेक्ट' और दूसरा 'राइट टु रिकाल'.....तमाम बुद्धिजीवी हलकों में इन बिन्दुओं पर बहसें छिड़ी हुई हैंजाने कितने विद्वान् इन बिन्दुओं पर मगजमारी कर रहे हैं.....मुझे लगता है कि 'राइट टु रिजेक्ट' और 'राइट टु रिकाल' तो पहले से ही अस्तित्व में हैं। हमारे माननीय नेतागण चुनाव जीतकर सदन में जाते ही जनता को रिजेक्ट कर देते हैं, वहाँ तमाम जोड़-तोड़ कर सरकार बनाते हैं और जब मर्ज़ी हुई जनता को फ़िर से मतदान केंद्र में रिकाल करते हैं इस प्रकार 'राइट टु रिजेक्ट' और 'राइट टु रिकाल' तो  आज भी अस्तित्व में हैं बस पाले का फ़र्क़ है।
     
   इस सुहाने चुनावी मौसम में चुनाव लड़ने का कीड़ा मेरे अन्दर भी कुलबुलाने लगा है, सोचता हूँ कि शायद मैं भी चुनाव जीत जाऊँ और मेरे साथ-साथ मेरी आने वाली पीढ़ियों के भी दिन फिर जाएँ लेकिन मेरे चुनाव जीतने में बड़ी भयंकर बाधाएं हैं, पहली तो यह कि मेरे माता-पिता तो क्या मेरे खानदान में भी कोई 'धुरंधर नेता' नहीं रहा जो मेरा नेतागिरी का 'कैरियर' चमकाने में मेरी मदद करे और दूसरी बाधा यह है कि मैंने आज तक समाजसेवा का कोई काम नहीं किया, यहाँ तक कि मैंने पड़ोस के नाली के झगड़े तक नहीं सुलटाये हालाँकि मैं ये अच्छी तरह जानता हूँ कि आज के इस दौर में 'समाजसेवा' चुनाव लड़ने और जीतने के लिए कोई आवश्यक आवश्यकता नहीं है। 
   
   मेरे चुनाव लड़ने और नेतागिरी का कैरिअर शुरू करनेमें तीसरी और सबसे बड़ी बाधा यह है कि मेरे पास प्रारंभिक निवेश के लिए पूँजी नहीं है अर्थात् किसी बड़ी पार्टी का टिकट प्राप्त करने के लिए मेरे पास लाखों-करोड़ों  रूपए नहीं हैं इसलिए मन मारकर एक आम मतदाता बनकर ही चुनावी त्यौहार का मज़ा लूँगा और बदले में किसी चीज़ की अपेक्षा न करते हुए 'मतदान' करूँगा क्योंकि दान में दी गई किसी चीज़ के बदले कोई अपेक्षा रखना शास्त्रों में भी मना है और फ़िर यह भी शाश्वत सत्य है कि- "कोऊ नृप होय हमें तो हानी ही हानी"....     

    चुनावी वादों की बरसात में मस्त हो यदि मैं ज़्यादा टर्रा गया होऊं तो गुस्ताख़ी माफ़ी की उम्मीद के साथ अंत में चंद पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ----

                  चुनाव आयोग सख़्त है
                  नेता मस्त ही नहीं
                  लाल बत्ती में मदमस्त है.
                  मतदाता पस्त नहीं
                  व्यवस्था का अभ्यस्त है.
                  इस तरह अपना लोकतंत्र
                  दुनिया में ज़बरदस्त है.
                  लोकतंत्र की ये परिभाषा
                  अब तो बच्चे-बच्चे को कंठस्थ है।

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