शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

चलता हूँ दो क़दम...


चलता हूँ दो क़दम, फ़िर ठहर जाता हूँ 
जब भी उस बिछड़े हुए शहर जाता हूँ 


वही रास्ते, गलियाँ, दर-दरीचे वही हैं 
फ़िर भी बदला-बदला सा मंज़र पाता हूँ...


आइना देखता हूँ तो मैं भी मुश्फिक़ लगता हूँ
क़ल्ब में थोड़ा सा लेकिन ज़हर पाता हूँ...


आब-जू में बह जाऊं, फ़िर से मुहौब्बत कर लूं
पर अपना मुस्तक़बिल सोच के सिहर जाता हूँ...


दीवाना कहो,सिरफ़िरा मुझको, पर ये तो मानो
है काम मुश्किल फ़िर भी इश्क़ तो कर जाता हूँ...


गिरा हूँ कितनी बार न जाने संभला हूँ
ठोकर न जाने क्यूँ उसी दर पर खाता हूँ....

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