आज़ादी के साठ वर्ष से अधिक हो रहे हैं, बहुत कुछ बदल गया है, कंप्यूटर का युग है, विकास का दौर है, पुरानी चीज़ें मान्यताएं बदल रही हैं या यूँ कहें बदल गई हैं। हर क्षेत्र में प्रगति हुई है,क्या सच में प्रगति हुई है या हमने कुछ खोया भी है?
नैतिक मान्यताएं,संस्कृति संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। बैलों के गले के घुंघरू उदास हैं। बैलगाड़ी पर बैठी नवोढ़ा और परिजनों के विदाई गीत ख़ामोश हैं। काग़ज़ का टुकड़ा किसी की भावनाओं को दस्तावेज़ बनने को तरस रहा है। बोली की मिठास डायबिटीज़ की गोली की तरह फ़र्ज़ी हो चली है। देशी तन-मन पर विदेशी मुलम्मा चढ़ रहा है। बाटी को बर्गर चट कर रहा है, राब-डाब को कोल्ड ड्रिंक पिए जा रही है,जामुन को स्ट्राबेरी चिढ़ा रही है, पुदीने की चटनी सोया-सॉस से संघर्ष कर रही है।
नैतिक मान्यताएं,संस्कृति संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। बैलों के गले के घुंघरू उदास हैं। बैलगाड़ी पर बैठी नवोढ़ा और परिजनों के विदाई गीत ख़ामोश हैं। काग़ज़ का टुकड़ा किसी की भावनाओं को दस्तावेज़ बनने को तरस रहा है। बोली की मिठास डायबिटीज़ की गोली की तरह फ़र्ज़ी हो चली है। देशी तन-मन पर विदेशी मुलम्मा चढ़ रहा है। बाटी को बर्गर चट कर रहा है, राब-डाब को कोल्ड ड्रिंक पिए जा रही है,जामुन को स्ट्राबेरी चिढ़ा रही है, पुदीने की चटनी सोया-सॉस से संघर्ष कर रही है।
नीम की आखें अपनी डालों पर झूलों की माला पड़ने का इंतज़ार करते-करते पथरा गई हैं, मिट्टी बच्चों का खिलौना बनने को बेताब है, लकड़ी लट्टू बनने को अधीर है।
हलषष्ठी को वैलेन्टाइन से ख़तरा पैदा हो गया है। नानी की कहानी अब क़िस्सा बन चुकी है। कच्ची मड़ैया पक्की हो रही है और लोगों के मन भी पक्की दीवारों की तरह कठोर हो रहे हैं, दुनिया फैल रही है हृदय सिकुड़ रहे हैं...
पनघट की डगर अभी भी कठिन है पर पनघट हैं कहाँ? कुओं के मेंढक तालाबों से होते हुए भूमि में पनाह तलाश रहे हैं.
ट्रैक्टर की घरघराहट में रहट की आवाज़ ग़ायब हो गई है। सेंठे की क़लम, बाल-पेन से हार गई है, उस्तरे को सेफ्टी रेज़र ने ज़मीदोज़ कर दिया है। डियो (deodourant) की फुहार में इत्र की ख़ुश्बू उड़ गई है। लैला-मंजनू को रोमियो जूलियट ने मंच से धकिया दिया है। क़व्वाली की सरगम को रैप ने ग़मगीन कर दिया है।
बच्चे शाला में नहीं हैं..... पतंग की डोर के छोर पर नहीं हैं.... बकरियों के पीछे भी नहीं हैं, बच्चे कहाँ हैं? शायद बच्चे अब बूढ़े पैदा हो रहे हैं। जवान होते छोकरों की अलमारी के गुप्त कोने में छिपा गुप्त साहित्य नदारद है। बच्चे, बच्चों की तरह क्यों नहीं बड़े हो रहे हैं? या हम उन्हें बच्चों की तरह बढ़ने नहीं दे रहे हैं?
हम कहाँ जा रहे हैं? हम क्या कर रहे हैं? हमारा असलीपन क्यों विलुप्त होता जा रहा है? क्यों हम वैसे ही नहीं जी लेते जैसे कि हम शुरू से हैं? हमारी मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू क्यों ग़ुम होती जा रही है?
आप मुझे आधुनिकता का विरोधी समझने की भूल कदापि न करें।
आधुनिकता क्या है? आधुनिकता के मायने क्या हैं?
क्या अपनी निजता को बिसारना आधुनिकता है? क्या उन जड़ों को काटना आधुनिकता है जिन्होंने हमें पोस कर यहाँ तक पहुँचाया है? क्यों हम दूसरों को अपने से बेहतर समझते हैं? दूसरे हमारी तरह क्यों नहीं हो जाते, क्या हम इतने बुरे हैं? यदि हम इतने ही बुरे थे तो बाहर के लोग सदियों से हमारे यहाँ क्यों आते रहे?
क्या किसी चीज़ का अँधा अनुसरण आधुनिकता है? क्यों हम पराये परिवेश की परदेशी परिभाषा को सहर्ष आत्मसात करने की बजाय आधुनिकता की अपनी परिभाषा नहीं गढ़ लेते जो हमारे परिवेश के अनुकूल हो... इसलिए समलैंगिकता, live in relationship , और तन को छिपाने-दिखाने में आधुनिकता की परिभाषाएं मत तलाशिये…
ये ठीक बात है कि विकास के लिए आधुनिकता आवश्यक है किन्तु यह सोचना भी आवश्यक है कि हम उसकी क्या क़ीमत चुका रहे हैं।
मेरे विचार से आधुनिकता के लिए दो चीज़ें आवश्यक हैं- खोज और आविष्कार... किन्तु विडम्बना यह है कि आविष्कार तो नित नए हो रहे हैं किन्तु खोज की गति बहुत सुस्त है या लगभग न के बराबर है, अब सोचने वाली बात है कि क्या हमने सब कुछ खोज लिया है और खोजने को कुछ भी बाक़ी नहीं रह गया है...?
यहाँ खोज को सिर्फ़ वैज्ञानिक खोज से जोड़कर मत देखिये, आधुनिकता के लिए नए विचारों का आविर्भाव बहुत आवश्यक है और ये विचार ऐसे हों जो समाज के आत्मिक और भौतिक स्तर को सकारात्मक गति दे सकें... अतः आम जनमानस के विचारों का 'अद्यतन' होना ज़रूरी है लेकिन यह परिवर्तन अपने देश के परिवेश, संस्कृति, विरासत और नैतिक मान्यताओं के दृष्टिगत और धरोहरों को संजो कर रखते हुए हो तो परिणाम और भी आकर्षक और सुखद हो सकते हैं।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि विचारों का यह परिवर्तन सिर्फ़ कुछेक लोगों के स्तर पर न होकर समाज के अधिकाँश तबकों में प्रभावी हो तभी आधुनिकता सही मायनों में आधुनिकता होगी....
अब आप सोचिये क्या हम वाकई में आधुनिक हैं? मैं समझता हूँ कि हम वास्तव में तब आधुनिक होंगे जब समाज में ज़ात-पात की दीवारें नहीं रहेंगी, सामाजिक बराबरी का दर्ज़ा सिर्फ़ क़ानून की किताबों में न होकर हक़ीक़त के धरातल पर होगा... जब कन्यायें गर्भ में सिर्फ़ अपने लिंग के कारण नहीं मारी जाएँगी, हम किसी दूसरे व्यक्ति से सिर्फ़ इसलिए नहीं द्वेष रखेंगे क्यों कि उसका इबादत का तरीक़ा हमसे अलग है अर्थात दूसरे के धर्म का सम्मान और प्यार करेंगे, बूढ़े अभिभावक वृद्धाश्रमों में न रहकर अपने परिवार के साथ ससम्मान, हंसी-ख़ुशी रहेंगे, बेटियां दहेज़ के कारण नहीं मारी जाएँगी कुल मिला कर हम समाज में ज़ात-पात,धर्म,वर्ग,वर्ण,क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठ कर सिर्फ़ इंसान बनकर भाई-चारे के साथ रहेंगे, समाज का प्रत्येक तबका शिक्षित होगा और जब अख़बारों में आदमी को घोड़ा बनाने के विज्ञापन छपेंगे तो कोई उस पर यक़ीन नहीं करेगा......
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