शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

फ़िल्मी फ़लसफ़ा


       


 मित्रों आज़ादी के बाद हिंदी फ़िल्म उद्योग ने बड़ी तरक्क़ी की.... बच्चेबूढ़े और जवान भले ही 'यंग इंडियान पहनते रहे हों लेकिन हिंदी फ़िल्में बड़े चाव से देखते आये हैंफ़िल्में देखने के लिए लोगों ने न जाने कौन-कौन से सद्कर्म किये हैं और आज भी उन वीरतापूर्ण सद्कर्मों की गाथाएं सगर्व सुनाई जाती हैं....
     लोग इल्म-ओ-तालीम की क़ीमत पर फ़िल्में देखने का पराक्रम दिखाते रहे हैं... फ़िल्मी तरानों और हाव-भावों पर बुज़ुर्गों के नथुने हमेशा फड़कते रहे, हालाँकि अपनी उम्र पर वे भी फ़िल्मों के ज़बरदस्त शौक़ीन रहे। हर पीढ़ी का ये रोना रहा कि फ़िल्में तो हमारे ज़माने में बनती थीं अब तो कूड़ा-कचरा परोसा जा रहा है... फ़िर भी फ़िल्में बन रही हैं और ख़ूब बन रही हैं नतीजाफ़िल्में पैदा करने में भी हमारा मुल्क़ अव्वल बना हुआ है और फ़िल्मी अभिनेताओं को देवी-देवताओं सरीखा रुतबा हासिल है.....मुझे तो अपना बचपन याद आता है जब हिंदी फ़िल्में आसानी से सुलभ नहीं थीं उन दिनों चुनाव के बाद मतगणना का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता था... अरे! चुनावी नतीजों के लिए नहीं उन फ़िल्मों के लिए जो मतगणना के दौरान दूरदर्शन पर दिखाई जाती थीं...
      कुल मिला कर कहने का तात्पर्य यह है कि सबकी तरह मुझे भी फ़िल्मे देखना बहुत पसंद था...... हिन्दुस्तान में फ़िल्मों की शुरुआत से लेकर आज तक की ढेरों फ़िल्में देखीं और अधिकाँश हिन्दी फ़िल्मों को देखकर मोटे तौर पर कुछ निष्कर्ष निकले हैं जो बिन्दुवार आपके समक्ष प्रस्तुत हैं....

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दुनिया में सर्वाधिक प्रेम विवाह हिन्दुस्तान में होते हैं.

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जीवन का एकमात्र लक्ष्य विवाह है.

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प्रेम(प्यार) का मतलब नायक का नायिका से प्रेम है जो उसे नायिका की सुन्दर देह में नज़र आता है.

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नायक सर्वाधिक सुन्दर कन्या से ही प्रेम करते हैं.

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नायिका सर्वाधिक सुन्दर होती है जबकि नायक की बहन अपेक्षाकृत कम सुन्दर होती है.

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बदसूरत व्यक्ति नायक नहीं हो सकता है.

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बदसूरत व्यक्ति दबाने/कुचले जाने के लिए होता है या फ़िर खलनायक होता है.

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नायक बनने के लिए ख़ूबसूरत चेहरे के साथ बलिष्ठ शरीर की ज़रुरत होती है.

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नायक होने के लिए व्यक्ति को हरफ़नमौला होना चाहिए जैसे उसे नर्तक/गवैया होने के साथ-साथ पराक्रमी योद्धा भी होना चाहिए.

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न्याय पाने/करने का एकमात्र तरीक़ा मार-धाड़ है.

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नायक/नायिका चाहे रेगिस्तान में रहते हों नाचने के लिए पहाड़ों पर जाते हैं कुछ तो सरहदें भी पार कर जाते हैं.

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सिर्फ़ एक बार की सहमति/ग़लती/ज़बरदस्ती मातृत्व की ख़ुशख़बरी/दुखख़बरी बन सकती है.

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किसी महिला/युवती को उल्टी आने का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही मतलब है।

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अधिकाँश भारतीय फ़िल्में वय के लिहाज़ से सब के साथ समानता का व्यवहार करती हैबालिग़-नाबालिग़ का कोई भेद नहीं और इस दृष्टिकोण से हमारी फ़िल्में यौन शिक्षा का उत्तम और प्रभावशाली माध्यम हैं.

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जीवन में अधिकाँश समय बाज़ी खलनायकों के हाथ में रहती है जैसे 2.5 घंटे की फ़िल्म में 2 घंटे 15 मिनट खलनायक की मौज रहती है.

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भारत में दिल्लीपंजाबमहाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश ही हैं और सिक्किमअरुणांचलमेघालयआसाममणिपुरनागालैंडत्रिपुरा जैसे प्रदेशों का कोई अस्तित्व नहीं है.

नोट- उपरोक्त निष्कर्ष अधिकाँश फ़िल्मों पर आधारित हैं इसमें सभी फ़िल्में शामिल नहीं हैं।

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

नन्ही- मुन्नी घोटाली !!!


विकलांग कल्याण में 71 लाख का घोटाला

घोटालों के इस 'महायुग' में छोटी सी नन्ही-मुन्नी घोटाली !!!
(घोटाले की बोनसाई)
 

हुंह.... ये भी कोई बात हुई, हमें 'माननीयों' से ऐसी उम्मीद नहीं थी। ऐसे घोटाले तो 'छोटे-मोटे' घोटालेबाज़ों को शोभा देते हैं, नगर निगम का या विकास प्राधिकरण का 'क्वालीफाइड' अफ़सर हो, सरकारी अनुदान से चलने वाली किसी शैक्षणिक संस्था की प्रबन्ध समिति का 'प्रशिक्षित' प्रमुख हो या फिर बाढ़ राहत/ सूखा राहत आदि 
कार्यों का 'ज़िम्मेदार' कर्ता-धर्ता हो, किसी धार्मिक ट्रस्ट का 'धर्मपारायण' मठाधीश हो, किसी प्रवेश परीक्षा में जमा होने वाली रक़म का 'सक्षम पहरेदार' हो, नदी-नालों की साफ़-सफ़ाई कराने वाला 'साफ़ चाल-चलन' का कोई ओहदेदार हो, जंगलों में सरकारी अनुदान पर वृक्षारोपण कराने वाला कोई 'प्रकृति-प्रेमी' अफ़सर हो, ऊसर ज़मीन को उपजाऊ बनाने वाला कोई 'हरित-क्रांति का उपासक' हाक़िम हो या 'सीमित संसाधनों और सामर्थ्य' वाला कोई 'साधारण प्रशिक्षु खिलाड़ी' हो तो बात कुछ जँचती, हमें उनसे ऐसे प्रदर्शन की उम्मीद रहती है। 

एक बेहतरीन घोटालेबाज़ अगर दांत खोदकर थूक दे तो ऐसी 10-20 घोटाली ज़मीन पर लोटती मिलेंगी, एक उम्दा घोटालेबाज़ प्रशिक्षण अवधि(training period) में भी ऐसी घोटाली नहीं करता, अच्छे घोटालेबाज़ों के नौसिखिया चेले परीक्षा में इस तरह के प्रोजेक्ट/अधिन्यास(assignment) जमा करते हैं।

हम हिन्दुस्तानी लोग हैं और घोटालाप्रूफ हो चुके हैं और 60 सालों में बड़ी त्याग तपस्या से यह सिद्धि प्राप्त की है..... बड़े-बड़े क्रांतिकारी घोटालेबाज़ों ने बड़े परिश्रम, कौशल और अद्वितीय चातुर्य से हमें इस योग्य बनाया है.... हम उन महान घोटालेबाज़ों की समृद्ध परम्परा और उनके नाम पर प्रकार का बट्टा बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे.... घोटालों के इस स्वर्णयुग में इस तरह के घटिया प्रदर्शन पर हमें सख्त ऐतराज़ है, यह हमारी ग़रीबी का भी मज़ाक़ है..... बताओ! वैश्विक स्तर पर हम लोगों को क्या मुँह दिखायेंगे कि हिन्दुस्तान में घोटालेबाज़ों का स्तर इतना गिर गया है कि ऐसी घोटाली पैदा कर रहे हैं?

मेजर ध्यानचंद के मुल्क़ में हाकी की दयनीय दशा पर हम ख़ूब छाती कूटते हैं। इसी तरह मज़बूत घोटालों की समृद्ध परम्परा के इस देश में ऐसा सतही मुज़ाहिरा हमें नागवार गुज़रा है, हम जानते हैं हमारी बेंचस्ट्रेंथ बहुत दमदार है, एक से बढ़कर एक पराक्रमी 'खिलाड़ी' मौक़े के इंतज़ार में हैं.... और जब खिलाड़ी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप 'खेल' न दिखा पाए तो यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि उसे टीम से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये और नए जोशीले और मज़बूत कन्धों वाले 'हुनरमंद' खिलाड़ियों को मौक़ा दिया जाए।

                              ◘◘◘◘◘◘◘◘ ND ◘◘◘◘◘◘◘◘

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

मीडिया वाले लई डारेन....


   भईया......... यू दुई हजार बारा तौ नीके-नीके लगभग निपटिही गा, दुई-ढाई महिना बचे हैं, जो बरम बाबा केर किरपा बनी रही तौ यहौ निपटि जाई। मुला का बताई यू साल राम-राम कइके कइसे बीता है, यू हमहीं जानित है। अरे, पार साल ई मीडिया वाले बहुत डेरवा दीन्हेन, कउनौ बतायेस दुई हजार बारा मा या दुनिया खतम होई जाई, कउनौ बतायेस सूरज ते सूनामी आई, औ कोई बतायेस भगवान जाने कहाँ सेने उलका गिरी, जलजला आई औ सब नस्ट-भस्ट होई जाई.... दुई-चार महिना तक यू सब बताय-बताय के चैनल वाले हमार खोपsड़ी चाटि गे.... औ हम तौ ठहरेन सिर्री मनई, सोचेन जब ई पंचै, पढ़े-लिखे लोग बताय रहे हैं तौ ठीकै कहत होइहैं, कहूँ न कहूँ ते खोदि कै या जानकारी निकारेन होइहैं, कउनौ बेद-सास्त्र बांचेंन होइहैं...

   मुला याक बात हम तबहूँ स्वाचा रहै कि जब दुई हजार बारा मा दुनिया खतमै होई जाई तौ हम यू जानिहू के का करि लेबे,सब बरम बाबा की माया है...... ई लोग यू सब हमका काहे बता रहे हैं, फिर स्वाचा जब बताहे रहे हैं तौ कउनौ न कउनौ मतलब होइबै करी, बड़े लोगन की बड़ी बात... अइसेहे काहे बतावै लाग, अरे पण्डितौ जी तौ हाथ द्याखत हैं, कुण्डली बांचत हैं..... आगा-पीछा सब बतावत हैं, यही खातिर तौ, कि जउन मुसीबत आवै वाली है वहिका उपाय करा लेव, जग्य-हवन, माला-मंतर सेने सब फिट कराय लेव, एहिमा दूनौ जनेन का फायदा,पण्डितजी का दान-दच्छिना मिलि जाए औ मुसीबतौ टलि जाय......पण्डितौ खुस, जजमानौ खुस। औ जो पण्डित डेरवावैं न, तौ उनहुन का काम न चलै, उनकी तौ यहै रोजी, लगे हाथ लोगन का कल्यानौ होई जात है।

   यू सब स्वाचै के बाद हम स्वाचा, मीडिया वाले मुसीबत तौ बताय दिहिन, कउनौ उपाय तौ बतायेन नहीं........... जरुर कउनौ उपाय होबै न करी नहीं तौ जहाँ एत्ता बतायेन तहाँ उपायौ जरूर बतउतैं...... बस!!!..... यहै बात हमार जिउ लई लीन्हेस..... चार-छा दिन तक खाना पीना कुछौ नीक न लागै....जेहिका देखी, वही पर झउंकि परी....... घरैतिन कहैं, यू तुमका होई का गा है, कउनौ पण्डित-बैद का देखा लेव, कल्हि बड़कए कक्कू खियाँ फोन किया रहै, कहत रहैं, भईया का एतवार-मंगर मा लेति आओ, लल्लन की ससुरार मा याकै हैं, बहुत बढ़िया फूंक डारत हैं। हम कहेन, तुम्हारौ दिमाग फिरि गा है.... अब फूंक डरवाये का फायदा, कक्कू ते कहौ माया-मोह छोड़ि कै भगवत-भजन करैं औ जऊन कुछ नीक-सूख मिलै प्रेम ते खायं।

   एहिके बाद हमका न जाने कउनी- कउनी चिंता सतावै लागीं, पार साल बरमा  जी की बिटिया के बियाहे मा लोहे की अलमारी दीन रहै, आसौं हमरे हियाँ कउनौ कामौ-काज नहीं है। छोटकए भाई के साले पचीस हजार रूपया लई गे रहैं, जो साल भीतर न लउटारेन तौ फिर कउने काम का पइसा....द्याखौ अबहीं उनकी नाक मा दम करित है..... अइसी-तइसी मा गै रिस्तेदारी। बीमा मा तमाम पइसा जमा है, वहिका का होई, बैंक मा दुई-एक छोटी-मोटी रकमौ(FD) जमा हैं, बड़ा असमंजस है, रकम निकारी कि जमा रहै देई.... यहे तना के तमाम बिचार हमका बिचलित करत रहे, फिर हम मन मा स्वाचा कि घूरे पर वाली जमीन के बैनामा मा मिसरा जी से जउन पैंतालिस हजार रूपया लीन रहै, उई अब हम न देबे,कम ते कम साल भर तो नाहेन देबे। जहाँ तक होई सकी सौ- दुई सौ खरचा करि के बिजली का बिलौ न जमा करिबे औ द्याखौ कउनौ बैंक से लम्बे करजा क्यार जुगाड़ लगाईत है........यू बिचार मन मा आवै के बाद कुछ तसल्ली भै।

   घरैतिन कहेन- पायल टूटि गई हैं, जोड़वा देव या नई लई देव, वहिके बाद कहेन- घर मा का है का नहीं कुछौ द्याखत नहीं हौ, ओवाढ़ै -बिछावै का दुई-तीन रजाई-गद्दा बनवा लेव। हम कहेन कउने चक्कर मा परी हौ.....कुछौ जनतिहू हौ कि बेमतलब हमार खोपsड़ी खा रही हौ.... साल भर की बात है, का फायदा पइसा फंसाए, अब तौ जउन बढ़िया ते बढ़िया खा पी सकौ, खा-पी लेव, खुद खाओ औ लरिका-बच्चनौ का खवाओ, काहे ते खावै-पिया साथ जाई। एहिके बाद तौ हमार अउर घरैतिन क्यार आंकड़ै बिगड़ि गा, लेकिन हम खाये-पियै मा कउनौ मुरउवत नहीं किया। बैंक-शैंक मा जहाँ जउन पइसा रहै सब का भोग लागि गवा।

   अउर अब, जब यू साल नीके-नीके बीति रहा है तौ हमार हालत बड़ी पतली होई गै है, सोचित है… बड़ा ध्वाखा होई गा। ई मीडिया वाले हमका लई डारेन, लेकिन उई यू सब कीन्हेन काहे? ........ हमरे पड़ोस मा याकै दिच्छित जी रहत हैं, प्राइमरी स्कूल मा महाट्टर हैं, दुई-चार बार हमरे हियाँ वऊ दावत उड़ा गे रहैं, उई बतायेन ई खबरी चैनल वाले बिग्यापन ते लाखों-करोड़ों कमात हैं, अब चौबीसों घंटा का देखावैं, तौ यहे तना लोगन का उल्लू बनावत हैं, दिच्छित जी यहौ बताएन कि अमरीका वाले..... अरे ऊ का कहत हैं... हाँ! हालीबुड मा, हुवां कोलम्बिया पिच्चर वाले याक पिच्चर बनाइन रहै- दुई हजार बारा ''को-को बची" (2012 who will survive). उई लोग या पिच्चर हजार करोड़ मा बनाय के यहे तना लोगन मा पहिले भरम फइलाएन फिर अड़तीस अरब रूपया कमा लीन्हेन। अच्छा.......!! अब समझेन, यू सब पइसा क्यार खेल रहै औ अमरीका वाले हमरे 'ईमानदार' चैनल वालेन का ई सब लच्छन सिखाइन हैं।

   याक बात अउर याद आ रही है, चैनल वाले कउनौ नाम बतावत रहैं..... कि कहाँ यू सब लिखा रहै..... अरेssss..... अरे हाँ! माया सभ्यता, हाँ- अइसै कुछ कहत रहैं। राम जानै माया सभ्यता रहै कि असभ्यता, यू सब हम नहीं जानित, हाँ एत्ता जरुर जानित है कि हमरे हियाँ मायाराज रहै, अब तौ यहौ लागत है माया सभ्यता मा कही बातन मा कुछ न कुछ सच्चाई जरुर रहै काहे ते हमका खतम करै मा कउनौ कसर तौ छोड़ी नहीं गै, गरीब-गुरबन के इलाज का आठ हजार करोड़ रूपया डकारि गे, गरीब मरै तो मरै, पत्थरन मा लागै वाला पइसौ चांटि-पोंछि गे....... कउनौ कोइला खाए जा रहा है, कउनौ बिकलांगन की कुर्सी-कैलीपर खाए जा रहा है, जऊन फाइल ख्वालौ वही मा हमरे-तुम्हरे कतल की कहानी लिखी है, महँगाई मारे डार रही है, सिलेंडरौ छाहे मिलिहैं, पिटरोल अस्सी रूपया मा होई गा, जिनगी बड़ी मुश्किल होई गै है..... एत्ता होय के बादौ जिन्दा हन यहै बड़ी बात है..... बरम बाबै की किरपा है.... मुला याक बात हम बरम बाबौ ते कहे देइत है, अब ई सूखी किरपा ते काम चलै वाला नहीं है...... अब उनका कउनौ कलंकी औतार लई के भुईं पर आवैहेक परी.......  

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

बचपन सुहाना





वो बचपन के क़िस्से, लूडो.. वो पासे 

गिल्ली, वो डंडा, पतंगें........वो कंचे

वो मिट्टी की गुल्लक,वो फ़िल्मों की बकबक
वो काग़ज़ की ऐनक, कपड़े वो लकदक...

वो भूली सी मिस जी, वो टीचर की यादें 
वो छोटा सा बस्ता, वो छोटी किताबें....

वो बचपन की यारी....... यारी के वादे 
वो सतरंगी कॉमिक कोई जीवन में ला दे 

वो मीठा चुराना....... चोरी से खाना...
वो मदरसे न जाना.... बहाने बनाना 

वो वाटर कलर, वो रंगीन दुनिया 
वो सुन्दर सा तोता,पिंजरे की मुनिया 

वो ख़ाली सी जेबें, मचलते से सपने
वो बचपन के झगड़े, पराये वो अपने 

वो पापा की डांट......... मेले वो हाट
राजा बेटा कहाना,वो जन्मदिन के ठाठ 

वो जगमग दीवाली,मस्ती.. वो होरी 
वो मम्मी की लोरी, वो सपनों की गोरी 

बहुत याद आता है गुज़रा ज़माना 
कोई लाके मुझे दे-दे मेरा बचपन सुहाना

गुरुवार, 7 जून 2012

टेलीविज़न:- कल और आज





   भारत में 80 के दशक में टेलिविज़न ने जब पैर जमाने शुरू किये तब बुद्धू बक्से के नाम पर हमारा साक्षात्कार 'दूरदर्शन' से हुआ.... और आग़ाज़ बेहद शानदार रहा। 

   दूरदर्शन के माध्यम से हमें अनेक ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और जनमानस से जुड़े अनेकों कार्यक्रम देखने को मिले.... दूरदर्शन ने हमारी विराट बौद्धिक सम्पदा/ साहित्य और साहित्यकारों से हमारा साक्षात्कार कराया... दूरदर्शन के माध्यम से ही हम भारत के विभिन्न क्षेत्रों की सभ्यता,संस्कृति,साहित्य, परम्पराओं, कला व मौसीक़ी से रु-ब-रु हुए.... दूरदर्शन के उन कार्यक्रमों समाज एक जुड़ाव अनुभव करता था,उसमे अपना अक्स देखता था... उस वक़्त भारत के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व उन कार्यक्रमों के निर्माण/विषयवस्तु/सामग्री/प्रस्तुतीकरण से जुड़े थे।

   दूरदर्शन के शुरूआती कार्यक्रमों में 'हम लोग' में मध्यमवर्गीय परिवार की ज़िन्दगी की कशमकस को प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया.... जिसमे आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति को अपने संघर्ष का अक्स दिखा। सफ़ी ईनामदारसतीश शाहराकेश बेदी अभिनीत 'ये जो है ज़िन्दगी' ने सबको ख़ूब गुदगुदाया....

    विभाजन की त्रासदी पर लिखे भीष्म साहनी के उपन्यास को हमने 'तमस' के माध्यम से देखा... इसी प्रकार बुनियादगणदेवतामिर्ज़ा ग़ालिबशरतचंद्र के 'श्रीकांत',  आर.के.नारायण की 'मालगुडी डेज़', प्रेमचंद्र रचित 'निर्मला', शरदिंदु बंधोपाध्याय के 'व्योमकेश बक्षी', नेहरु जी रचित 'भारत एक खोज', बिमल मित्र के 'मुजरिम हाज़िर' आदि न जाने कितने उम्दा कार्यक्रमों को हमने देखा.... इनसे न केवल हमारा मनोरंजन हुआ बल्कि हमने अपनी संस्कृति/साहित्य के भी दर्शन हुए

   'नुक्कड़' जैसे कार्यक्रमों ने आम जनमानस में अपनी पैठ बनाई, सामाजिक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ती रजनी (प्रिया तेंदुलकर) ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का रास्ता दिखाया। अपना बचपन भला कैसे भूला जा सकता है उन दिनों बच्चे 'विक्रम बैताल' के दीवाने हुआ करते थे, डा.चन्द्रप्रकाश का 'चाणक्य' उच्च गुणवत्ता का कार्यक्रम भी हमें देखने को मिला.... रामानंद सागर के 'रामायण' और बी.आर.चोपड़ा के 'महाभारत' के प्रसारण के वक़्त सड़कों पर कर्फ्यू जैसी स्थिति अब भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा है.... 'सुरभि' पत्रिका ने हमें भारतीय संस्कृति के विभिन्न रंग दिखाए.... इसके अतिरिक्त कक्काजी कहिनअलिफ़ लैला, मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसे बहुत सारे बेहतरीन कार्यक्रम देखे गए जिनकी धुंधली यादें ही बची हैं।
   
   इतनी शानदार और गौरवशाली शुरुआत के बाद वक़्त आया तथाकथित नए ज़माने के टीवी कार्यक्रमों का.... दर्शकों की संख्या के लिहाज़ से कहें तो मुझे लगता है इसकी शुरुआत भी दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले शोभा डे रचित और 'महान' शख्शियत महेश भट्ट द्वारा निर्देशित 'स्वाभिमान' से हुई.... लेकिन यह तो सिर्फ़ शुरुआत भर थी.... उसके बाद टीवी चैनलों की बाढ़ और प्रतिस्पर्धा ने जायज़-नाजायज़ का कोई फ़र्क़ नहीं रखा।
  
   भारत के संघर्ष करते मध्यमवर्गीय जनमानस की महत्वाकांक्षाओं का दोहन शुरू हुआ... सांस्कृतिक व मानसिक प्रदूषण की घुट्टी बेहतरीन चासनी में घोलकर पिलाई जाने लगी जो शुरू-शुरू में बहुत लुभावना स्वाद देती है... ग़रीबी, तंगहाली में घिसटता आम आदमी जिस धन/वैभव/ऐश्वर्य के ख़्वाब देखा करता था और वह पावों में नैतिकता की ज़ंजीरों का दबाव महसूस किया करता था.... उसे ख़्वाबों की ताबीर नज़र आने लगी.... ज़ंजीरों का अस्तित्व बेमानी लगने लगाउसे लगा इन ज़ंजीरों को ढीला करके धीरे से पैर निकाल लेने में कोई बुराई नहीं है.... सब तरफ़ यही हो रहा है, सब यही कर रहे हैं... ग़रीबी/संघर्ष/तंगहाली सिर्फ़ मेरे गिर्द है... सब तरफ़ धन,वैभव,ऐश्वर्य है, ख़ुशहाली है.. समाज की रेस में मैं पिछड़ रहा हूँ... नहीं यह नहीं हो सकता, मैं पुरुषार्थहीन नहीं हूँ... 

   टीवी सीरियलों में देखा जाये तो कहा जा सकता है कि भारत से ग़रीबी उड़नछू हो चुकी है.... महिलाएं शौचालय में भी नौलखा हार पहने नज़र आएँगी... यह क्या है.... यह मध्यमवर्गीय सोच को नए आयाम प्रदान करना ही है... विभिन्न कार्यक्रमों में घटिया चालबाज़ियां, अनैतिक सम्बन्ध, फूहड़ता, अश्लीलता इतने व्यापक स्तर पर दिखाया जा रहा है, कि कृत्रिम कथाओं ने सच्चाई का बाना पहन लिया... यह इतना व्यापक है कि व्यक्ति संवेदना शून्य हो गया लगता है... चेतना जाती रही, अब व्यक्ति चौंकता नहीं है... व्यक्ति ने मान लिया है कि यह सब ज़िन्दगी का हिस्सा है... ऐसा होता है... अब तक कुछ नहीं बिगड़ा तो आगे भी कुछ बिगड़ने वाला नहीं है... इसमें कुछ बुराई नहीं है, सब जायज़ है।

   ऐसा नहीं है कि समाज पढ़ा-लिखा नहीं है... लेकिन विडम्बना यह है कि समाज ने पढ़ने-लिखने का प्रतिफल भौतिकता के रूप में मान रखा है... व्यापारियों के एक वर्ग ने इसी सोच का दोहन किया है... और कर रहे हैं.... समस्या यह है कि हम पढ़े-लिखे होने के बावजूद दुनिया को उस चश्मे से देख रहे हैं जो उन व्यापारियों ने उपलब्ध कराया है.... वे सिर्फ़ उन कार्यक्रमों को ही नहीं हमें भी निर्देशित कर रहे हैं।

   हमें यह बात याद रखनी होगी कि बुराई तात्कालिक सुख देने वाली और कालान्तर में घोर दुःख/घोर पीड़ा पंहुचने वाली होती है और अच्छाई शायद तात्कालिक सुख न दे लेकिन वह शाश्वत होती है सदा सुख देने वाली होती है.....
यह विषय इतना व्यापक है कि संक्षिप्त चर्चा में समेटना बहुत कठिन है... बहुत कुछ छूट गया है... बहुत कुछ कहना बाक़ी है... आप लोगों ने इतना पढ़ा उसके लिए धन्यवाद..... 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

दुनिया बदल रही है.....


दुनिया बदल रही है, मंज़र बदल रहा है 
मंज़िल नहीं है कोई, हर बशर चल रहा है...


क्या ख़ूब रंगरलियाँ, रौशनी है दिलकश 
आहें ख़ुदारा कैसी? किसी का घर जल रहा है?


मासूमियत है ऐसी, लोगों का मिज़ाज ऐसा  
आतिश को देखकर ज्यों बच्चा मचल रहा है 


अब दूर-ए-नज़र से देखा, सब साफ़ हो रहा है 
मर रहा है कोई, किसी का मतलब निकल रहा है 


जिस देहली को पकड़े उम्र तमाम हो गई 
मेरा भी दिल अब तो वो दर बदल रहा है


आँखों में रात लेकर, बैठा रहा वो शब भर 
सुबहो को जाने क्यूँ-कर चादर बदल रहा है 


पागल कहे है कोई, दीवाना जाने कोई 
अंधों की बस्ती से वो, बन-संवर निकल रहा है 


सफ़र बीच में हूँ, तुझसे मिलन की जानिब 
या ख़ुदा!, नाखुदा अब तेवर बदल रहा है 


हाय रे, अब क्या हो, जाने ख़ुदा अब तू ही 
इल्म-ओ-क़लम किताबें देकर, वो खंज़र बदल रहा है 


दुनिया है सारी प्यासी, भटके फिरे है दर-दर 
काम है ये किसका,हर कुवें से ज़हर निकल रहा है 




रविवार, 4 मार्च 2012

अबके होली में ऐसा हो जाए. . . . .

अबके होली में ऐसा कुछ सिलसिला हो जाए 
धुल जाएँ नफ़रतें,दिल मुहौब्बत में रंगीला हो जाए 

हम आयें तेरे दर पर तो फूल खिल उठें 
तू जो आये क़रीब मेरे, ख़ुशी से दिल पगला हो जाए 


हम तो तुझे ख़्वाबों में देखते हैं अक्सर
तेरे दिल में मेरे दीदार का वलवला हो जाए

निकला हूँ अकेला मंज़िल की तलाश में
मिले जो तुम सा रहबर , बस काफ़िला हो जाए

तोड़ दे सारी सरहदें तू मेरे लिए दिलबर
मेरे दिल में भी ऐसा हौसला हो जाए

मुस्कराहटें तेरे लबों पे आने को मचलें
ग़मों से तेरा कुछ इस तरह फ़ासला हो जाए

मेरी तनहाई का सबब ख़ुशियाँ रहीं अब तलक
ग़मज़दा हूँ, अब तेरी महफ़िल में दाख़िला हो जाए

ग़र होता हो इस तरह,तो ये भी सही
मयकशी से ही हल ये मसला हो जाए