गुरुवार, 7 जून 2012

टेलीविज़न:- कल और आज





   भारत में 80 के दशक में टेलिविज़न ने जब पैर जमाने शुरू किये तब बुद्धू बक्से के नाम पर हमारा साक्षात्कार 'दूरदर्शन' से हुआ.... और आग़ाज़ बेहद शानदार रहा। 

   दूरदर्शन के माध्यम से हमें अनेक ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और जनमानस से जुड़े अनेकों कार्यक्रम देखने को मिले.... दूरदर्शन ने हमारी विराट बौद्धिक सम्पदा/ साहित्य और साहित्यकारों से हमारा साक्षात्कार कराया... दूरदर्शन के माध्यम से ही हम भारत के विभिन्न क्षेत्रों की सभ्यता,संस्कृति,साहित्य, परम्पराओं, कला व मौसीक़ी से रु-ब-रु हुए.... दूरदर्शन के उन कार्यक्रमों समाज एक जुड़ाव अनुभव करता था,उसमे अपना अक्स देखता था... उस वक़्त भारत के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व उन कार्यक्रमों के निर्माण/विषयवस्तु/सामग्री/प्रस्तुतीकरण से जुड़े थे।

   दूरदर्शन के शुरूआती कार्यक्रमों में 'हम लोग' में मध्यमवर्गीय परिवार की ज़िन्दगी की कशमकस को प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया.... जिसमे आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति को अपने संघर्ष का अक्स दिखा। सफ़ी ईनामदारसतीश शाहराकेश बेदी अभिनीत 'ये जो है ज़िन्दगी' ने सबको ख़ूब गुदगुदाया....

    विभाजन की त्रासदी पर लिखे भीष्म साहनी के उपन्यास को हमने 'तमस' के माध्यम से देखा... इसी प्रकार बुनियादगणदेवतामिर्ज़ा ग़ालिबशरतचंद्र के 'श्रीकांत',  आर.के.नारायण की 'मालगुडी डेज़', प्रेमचंद्र रचित 'निर्मला', शरदिंदु बंधोपाध्याय के 'व्योमकेश बक्षी', नेहरु जी रचित 'भारत एक खोज', बिमल मित्र के 'मुजरिम हाज़िर' आदि न जाने कितने उम्दा कार्यक्रमों को हमने देखा.... इनसे न केवल हमारा मनोरंजन हुआ बल्कि हमने अपनी संस्कृति/साहित्य के भी दर्शन हुए

   'नुक्कड़' जैसे कार्यक्रमों ने आम जनमानस में अपनी पैठ बनाई, सामाजिक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ती रजनी (प्रिया तेंदुलकर) ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का रास्ता दिखाया। अपना बचपन भला कैसे भूला जा सकता है उन दिनों बच्चे 'विक्रम बैताल' के दीवाने हुआ करते थे, डा.चन्द्रप्रकाश का 'चाणक्य' उच्च गुणवत्ता का कार्यक्रम भी हमें देखने को मिला.... रामानंद सागर के 'रामायण' और बी.आर.चोपड़ा के 'महाभारत' के प्रसारण के वक़्त सड़कों पर कर्फ्यू जैसी स्थिति अब भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा है.... 'सुरभि' पत्रिका ने हमें भारतीय संस्कृति के विभिन्न रंग दिखाए.... इसके अतिरिक्त कक्काजी कहिनअलिफ़ लैला, मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसे बहुत सारे बेहतरीन कार्यक्रम देखे गए जिनकी धुंधली यादें ही बची हैं।
   
   इतनी शानदार और गौरवशाली शुरुआत के बाद वक़्त आया तथाकथित नए ज़माने के टीवी कार्यक्रमों का.... दर्शकों की संख्या के लिहाज़ से कहें तो मुझे लगता है इसकी शुरुआत भी दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले शोभा डे रचित और 'महान' शख्शियत महेश भट्ट द्वारा निर्देशित 'स्वाभिमान' से हुई.... लेकिन यह तो सिर्फ़ शुरुआत भर थी.... उसके बाद टीवी चैनलों की बाढ़ और प्रतिस्पर्धा ने जायज़-नाजायज़ का कोई फ़र्क़ नहीं रखा।
  
   भारत के संघर्ष करते मध्यमवर्गीय जनमानस की महत्वाकांक्षाओं का दोहन शुरू हुआ... सांस्कृतिक व मानसिक प्रदूषण की घुट्टी बेहतरीन चासनी में घोलकर पिलाई जाने लगी जो शुरू-शुरू में बहुत लुभावना स्वाद देती है... ग़रीबी, तंगहाली में घिसटता आम आदमी जिस धन/वैभव/ऐश्वर्य के ख़्वाब देखा करता था और वह पावों में नैतिकता की ज़ंजीरों का दबाव महसूस किया करता था.... उसे ख़्वाबों की ताबीर नज़र आने लगी.... ज़ंजीरों का अस्तित्व बेमानी लगने लगाउसे लगा इन ज़ंजीरों को ढीला करके धीरे से पैर निकाल लेने में कोई बुराई नहीं है.... सब तरफ़ यही हो रहा है, सब यही कर रहे हैं... ग़रीबी/संघर्ष/तंगहाली सिर्फ़ मेरे गिर्द है... सब तरफ़ धन,वैभव,ऐश्वर्य है, ख़ुशहाली है.. समाज की रेस में मैं पिछड़ रहा हूँ... नहीं यह नहीं हो सकता, मैं पुरुषार्थहीन नहीं हूँ... 

   टीवी सीरियलों में देखा जाये तो कहा जा सकता है कि भारत से ग़रीबी उड़नछू हो चुकी है.... महिलाएं शौचालय में भी नौलखा हार पहने नज़र आएँगी... यह क्या है.... यह मध्यमवर्गीय सोच को नए आयाम प्रदान करना ही है... विभिन्न कार्यक्रमों में घटिया चालबाज़ियां, अनैतिक सम्बन्ध, फूहड़ता, अश्लीलता इतने व्यापक स्तर पर दिखाया जा रहा है, कि कृत्रिम कथाओं ने सच्चाई का बाना पहन लिया... यह इतना व्यापक है कि व्यक्ति संवेदना शून्य हो गया लगता है... चेतना जाती रही, अब व्यक्ति चौंकता नहीं है... व्यक्ति ने मान लिया है कि यह सब ज़िन्दगी का हिस्सा है... ऐसा होता है... अब तक कुछ नहीं बिगड़ा तो आगे भी कुछ बिगड़ने वाला नहीं है... इसमें कुछ बुराई नहीं है, सब जायज़ है।

   ऐसा नहीं है कि समाज पढ़ा-लिखा नहीं है... लेकिन विडम्बना यह है कि समाज ने पढ़ने-लिखने का प्रतिफल भौतिकता के रूप में मान रखा है... व्यापारियों के एक वर्ग ने इसी सोच का दोहन किया है... और कर रहे हैं.... समस्या यह है कि हम पढ़े-लिखे होने के बावजूद दुनिया को उस चश्मे से देख रहे हैं जो उन व्यापारियों ने उपलब्ध कराया है.... वे सिर्फ़ उन कार्यक्रमों को ही नहीं हमें भी निर्देशित कर रहे हैं।

   हमें यह बात याद रखनी होगी कि बुराई तात्कालिक सुख देने वाली और कालान्तर में घोर दुःख/घोर पीड़ा पंहुचने वाली होती है और अच्छाई शायद तात्कालिक सुख न दे लेकिन वह शाश्वत होती है सदा सुख देने वाली होती है.....
यह विषय इतना व्यापक है कि संक्षिप्त चर्चा में समेटना बहुत कठिन है... बहुत कुछ छूट गया है... बहुत कुछ कहना बाक़ी है... आप लोगों ने इतना पढ़ा उसके लिए धन्यवाद..... 

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