''माँ
मुरादें पूरी कर दे, हलवा
बाँटूंगी''
मुरादें पूरी नहीं होगी तो हलवा नहीं
बंटेगा.....???
माँ के लिए- प्रोत्साहन, ऑफर या घूस की पेशकश .....???
किसी भी धर्म में जहाँ कहीं दान, ज़कात की बात कही गई है उसके साथ एक
शब्द और जोड़ा गया है .... ''निःस्वार्थ''.... मतलब यह कि उसके
बदले किसी चीज़ की इच्छा न की जाये .... यदि इच्छा है तो दान कोई धार्मिक कृत्य
नहीं... एक डील हुई, एक
सौदा हुआ....
दुनिया में जब भी किसी चीज़ के बदले किसी दूसरी
चीज़ के लेनदेन की बात हो, उसे सौदा या डील कहा जाता है... लोग ईश्वर से सौदेबाज़ी
करते हैं ... प्रभु ऐसा हो जाये तो मैं ऐसा करूँगा, या मैंने यह किया तो प्रभु को ऐसा करना चाहिए.... यदि मनुष्य के
धार्मिक कृत्य करने पर प्रभु उसका प्रतिफल नहीं देते तो वह डिफाल्टर हो गए.... अब
मनुष्य उसकी व्याख्या अपने तरीक़े से करने लगता है कि शायद कार्य करने में कोई चूक
हो गई.... भगवान की श्रवण-शक्ति कमज़ोर हो गई अर्थात भगवान सुन नहीं रहा.... अरे
भाई किसी सौदेबाज़ी में दोनों पक्षों का सहमत होना ज़रूरी है ... प्रभु ने इस
सौदेबाज़ी की कब सहमति दी.... चलो ठीक है फिर भी आप सौदेबाज़ी पर अड़े हुए हो तो इसे
इसी रूप में स्वीकार करने में क्या हर्ज़ है... ठीक है, सौदा किया, डील नहीं पूरी हो सकी... लेकिन इसे
भक्ति का नाम देना .... हास्यास्पद है... लोग इस बात को छिपाना चाहते हैं लेकिन यह
जितना छिपाया जाता है उतना ही व्यापक है.... छिपाते क्यों हैं? क्योंकि लोग जानते हैं यह ग़लत है, अधार्मिक है. आप समाज को बेवकूफ़ बना
सकते हो, स्वयं को बेवकूफ़
बना सकते हो लेकिन ईश्वर को नहीं.. ईश्वर सब जानता है...
कई बार जब कोई झूठ बार-बार दोहराया जाता है तो
सत्य लगने लगता है ... उसी तरह लोगों ने इस प्रकार की सौदेबाज़ी को भक्ति समझ लिया
है.... वर्षों से यही होता आया है,
यही बताया गया है यही सिखाया गया है.... भक्ति/धार्मिक कृत्यों को
सिर्फ़ भौतिक प्रतिफल की सम्प्राप्ति का मार्ग समझ लिया गया है... बहुत बड़ा छलावा
है, illusion है
यह,... मनुष्य की इसी
मनोवृत्ति का कुछ लोगों ने लाभ उठाया है, इस प्रकार की सौदेबाज़ी का बाज़ार तैयार किया गया है.... हमारी चेतना
पर एक भय का, अज्ञानता
का पर्दा डाला गया है ताकि हम सही तथ्य को जान ही न सकें.... ऐसा हमेशा से होता
आया है इसलिए यह सब सत्य प्रतीत होने लगा है, लाभ लेने वाले धोखेबाज़ लोगों ने सबसे पहले तो यही बात हमारे ज़ेहन में
पक्के तरीके से बैठाई कि लिखी गई,
विद्वान लोगों की बात पर कभी अविश्वास नहीं करना है... तर्क नहीं
लगाना है... नहीं तो यह धर्म विरुद्ध बात हो जायेगी और लोगों ने आँख मूँद कर उस पर
विश्वास करना शुरू कर दिया..... लाभ किसको हुआ....?? धार्मिक व्यापारियों को, धर्म गुरुओं को, भ्रामक धार्मिक साहित्य छापने वाले
प्रकाशकों को... पण्डे-पुरोहितों को, टेलीविज़न को....फ़िल्मकारों को... टेलीविज़न पर बिकने वाले
गंडे-ताबीज़-टोटके, ब्रेसलेट....
लाल किताब, पीली
किताब... आदि इसी बाज़ार का हिस्सा है.... मतलब साफ़ है सबको पैसा चाहिए और आप धार्मिक
तरीके से सुख समृद्धि ख़रीद सकेंगे... आप पुरुषार्थ नहीं धर्म के ज़रिये भी भौतिक
रूप से सुख-समृद्धिवान हो सकते हैं.... भगवान को लुभावने ऑफर के जाल में फांसकर
काम निकाल सकते हैं.... बाज़ार ने यही सिखाया है हम भक्त नहीं व्यापारी हो गए हैं, सौदेबाज़ हो गए हैं...
मैंने देखा आजकल हमारे मध्यमवर्गीय घरों की
महिलाओं में ‘’वैभव-लक्ष्मी’’ व्रत/उपवास का चलन है, वैभव लक्ष्मी व्रत पुस्तक की नियमावली
में सबसे पहले लिखा है- व्रत पूरा होने पर कम से कम सात या आपकी इच्छानुसार जैसे 11,21,51,101... स्त्रियों को ‘’निर्धारित प्रकाशन की ही’’ वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक, कुमकुम का तिलक करके भेंट के रूप में
देनी चाहिए जितनी पुस्तक आप देंगे उतनी माँ लक्ष्मी की कृपा होगी और माँ लक्ष्मी
जी के अद्भुत व्रत का ज़्यादा प्रचार होगा.... ऐसा लग रहा है जैसे माँ लक्ष्मी से
उक्त प्रकाशन ने सारे rights ख़रीद
रखे हैं और माँ का ख़ुश होना उसी प्रकाशन की पुस्तकें बांटने पर निर्भर है.....
सच्चाई यह है कि जब से देवी आदि शक्ति हैं तब छपाई आदि का आविष्कार भी नहीं हुआ
था...यह सिर्फ़ भक्ति का व्यापार है.....
जहाँ तक लिखी गई बातों का प्रश्न है तो मेरा
कहना है यह बातें किसने लिखी हैं? हमारे आप जैसे मनुष्यों ने ही लिखी हैं, तो क्या उन्होंने अंतिम सत्य लिख दिया
है....? वह सारी बातें
सही-सही जानते थे? उनसे
कोई त्रुटि नहीं हो सकती? आज
इक्कीसवीं सदी में विज्ञान, भाषा, सामाजिक नियमों, क़ानून आदि में आवश्यक संसोधन हुए हैं
तो क्या धार्मिक बातों में संसोधन की कोई गुंजाइश नहीं है, विचार की कोई आवश्यकता नहीं है? क्या कुछ चालाक लोगों ने अपने फ़ायदे के
हिसाब से उन लिखी गई बातों की व्याख्या नहीं की है?
हमें बताया गया है कि- तुम एक पैसा दोगे वो दस
लाख देगा........, मइया
जी के नाम का जितना भी डालोगे, नाम
वाले बैंक से दुगना निकालोगे..... हो सकता है यह बातें दान को प्रोत्साहित करने के
लिए कही गई हों.... लेकिन यदि दस लाख के लालच में एक पैसा और बैंक से दोगुना
निकालने के लालच में दान किया गया है तो गड़बड़ है... यह धार्मिक कृत्य नहीं है....
इन्वेस्टमेंट है, व्यापार
है....
भक्ति क्या है.... मेरा विचार है भक्ति ईश्वर
से, ख़ुद से
साक्षात्कार का माध्यम है.... अपनी आत्मा की शुचिता बनाये रखने, अपने अंदर की इंसानियत को बरक़रार रखने, सद्मार्ग पर चलने हेतु भक्ति का सहारा
लिया जाता है, इसमें
भौतिक नहीं बल्कि आध्यामिक/आत्मिक लाभ... आत्मिक शांति की संकल्पना की गई है....
मेरा प्रश्न हलवा खिलाने को लेकर नहीं है.... दान श्रेष्ठ मानवीय कर्म है... ठीक
है यदि ईश्वर ने हमें इस लायक़ बनाया है कि किसी दूसरे इंसान की सहायता कर सकें तो
इससे बेहतर तरीक़ा क्या हो सकता है.... लेकिन किसी भौतिक लालच हेतु किया गया दान, दान की श्रेणी में रखना मेरे विचार से
ठीक नहीं होगा....
संक्षेप में कही इतनी बातें.... बातें बहुत सी
बाक़ी हैं, बाक़ी
रह ही जाती हैं .... सब कुछ कह पाना संभव नहीं होता.... विचार अपना, सोच अपनी, चेतना अपनी... परिभाषाएं अपनी... कूड़े
में डालने योग्य हों तो यह भी ठीक रहेगा.....
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी इस विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज दिनांक ८ मई, २०१३, बुधवार के ब्लॉग बुलेटिन - कर्म की मिठास में शामिल किया है | कृपया बुलेटिन ब्लॉग पर तशरीफ़ लायें और बुलेटिन की अन्य कड़ियों का आनंद उठायें | हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .
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