भावनाओं के अतिरेक में
संभावनाएं फूट पड़ीं
टूट गयीं प्राचीरें विश्वास की
विवेक कुछ देर छटपटाया भी
चैत्य की पगडण्डी पर धुंध सी छा गई
हम अंतस में उजाले की कोठरी ढूंढते रहे
पर तमस्विनी तो यौवन पर थी
तमीश भी न जाने कहाँ चला गया
हिय ने हया का आवरण भी न रखा
और अंततः प्रस्फुटित हो गईं जिह्वा की कोरें
किन्तु 'उनकी' कुटिल स्मित ने
स्तिमित कर दिया समय को
उनकी अपरिचित चितवन ने
कुछ भी शेष न रखा…..
निमिष भर में ढूह ढह गए रेत से
हम पुनः उलझ गए उसी मकड़जाल में
यकायक धुंध छंटने लगी
प्राची भी रक्तिम होने लगी
सूर्य उदित होने को है
लगता है नया सवेरा आने को है.....
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