शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

उम्मीदें जवाँ हैं


अबकी अपने बग़ीचे में
कुछ बीज दबा दिए मिट्टी में
देखा....पूरा बग़ीचा व्याकुल है भारी गर्मी से
पौधे, मुरझाये-अलसाये ले रहे अन्तिम साँसें 
पर अभी आशा की एक किरण दिखती है
आकाश की ओर नज़र उठा मैं भी देख लेता हूँ
सोचता हूँ बादलों के झुण्ड आयेंगे,
मेरे बग़ीचे पर अमृत बरसा, हरा-भरा बनायेंगे
मेरे बीजों से अंकुर फूटेंगे,महकेगी सारी फुलवारी 
पुष्प से फल, फल से बीज के चक्र चलेंगे,
वो किनारे नींबू की डाल पर बैठी,
नन्हीं सी उदास चिड़िया,
मेरे आँगन में फुदकेगी....चहकेगी;
किसी भी क्षण प्रथक होने को तत्पर,
पौधों के पीले पत्ते भी,
निराश नहीं हैं अभी;
सचमुच! कुछ बादल आए
लहराते, किसी रूपसी की घनी श्याम अलकों की तरह,
उमड़-घुमड़, बग़ीचे पर छाए
पर यह क्या ?
सबकी अपेक्षाओं को उपेक्षित कर
बिना बरसे ही चले गए वो निष्ठुर
मैंने पूछा ऐसा क्यों ?
बादलों ने दोष दिया उस पवन को,
जो बहा ले गई उन्हें अन्जान दिशा में।
अब मैंने स्वयं से प्रश्न किया
दोष किसका है 
भाग्य का या कर्म का ?
लेकिन मैं अभी हताश नहीं हूँ
उस नन्हीं चिड़िया की सूनी आँखों में
आशा की चमक अभी बाक़ी है........
नए बादलों के झुण्ड आयेंगे,
मेरे बग़ीचे पर अमृत बरसा, हरा-भरा बनायेंगे।  

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