सोमवार, 17 नवंबर 2014

एक विजया घनाक्षरी



प्रीत है पुनीत रीत,  गाओ मीत प्रेम- गीत
भीत-भय त्याग कर, सुप्रेम वृष्टि कीजिये

अंग-अंग रंग भर, मन में  उमंग भर
तरंग ढंग ले नई, नवीन सृष्टि कीजिये

मानकर प्रथा यथा, व्यथा कथा न हो वृथा 
हूँ न कुछ न था कभी, दया सुदृष्टि कीजिये

चित्र है विचित्र मित्र, लोग भेद भाव लिप्त
मातृभूमि के निमित्त, अब समष्टि कीजिये

                   - निर्दोष दीक्षित

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