शनिवार, 20 अप्रैल 2013

धार्मिक सौदेबाज़ी


''माँ मुरादें पूरी कर दे, हलवा बाँटूंगी''

मुरादें पूरी नहीं होगी तो हलवा नहीं बंटेगा.....???
माँ के लिए- प्रोत्साहन,  ऑफर या घूस की पेशकश .....???

     किसी भी धर्म में जहाँ कहीं दान, ज़कात की बात कही गई है उसके साथ एक शब्द और जोड़ा गया है .... ''निःस्वार्थ''.... मतलब यह कि उसके बदले किसी चीज़ की इच्छा न की जाये .... यदि इच्छा है तो दान कोई धार्मिक कृत्य नहीं... एक डील हुई, एक सौदा हुआ....

     दुनिया में जब भी किसी चीज़ के बदले किसी दूसरी चीज़ के लेनदेन की बात हो, उसे सौदा या डील कहा जाता है... लोग ईश्वर से सौदेबाज़ी करते हैं ... प्रभु ऐसा हो जाये तो मैं ऐसा करूँगा, या मैंने यह किया तो प्रभु को ऐसा करना चाहिए.... यदि मनुष्य के धार्मिक कृत्य करने पर प्रभु उसका प्रतिफल नहीं देते तो वह डिफाल्टर हो गए.... अब मनुष्य उसकी व्याख्या अपने तरीक़े से करने लगता है कि शायद कार्य करने में कोई चूक हो गई.... भगवान की श्रवण-शक्ति कमज़ोर हो गई अर्थात भगवान सुन नहीं रहा.... अरे भाई किसी सौदेबाज़ी में दोनों पक्षों का सहमत होना ज़रूरी है ... प्रभु ने इस सौदेबाज़ी की कब सहमति दी.... चलो ठीक है फिर भी आप सौदेबाज़ी पर अड़े हुए हो तो इसे इसी रूप में स्वीकार करने में क्या हर्ज़ है... ठीक है, सौदा किया, डील नहीं पूरी हो सकी... लेकिन इसे भक्ति का नाम देना .... हास्यास्पद है... लोग इस बात को छिपाना चाहते हैं लेकिन यह जितना छिपाया जाता है उतना ही व्यापक है.... छिपाते क्यों हैं? क्योंकि लोग जानते हैं यह ग़लत है, अधार्मिक है. आप समाज को बेवकूफ़ बना सकते हो, स्वयं को बेवकूफ़ बना सकते हो लेकिन ईश्वर को नहीं.. ईश्वर सब जानता है...

     कई बार जब कोई झूठ बार-बार दोहराया जाता है तो सत्य लगने लगता है ... उसी तरह लोगों ने इस प्रकार की सौदेबाज़ी को भक्ति समझ लिया है.... वर्षों से यही होता आया है, यही बताया गया है यही सिखाया गया है.... भक्ति/धार्मिक कृत्यों को सिर्फ़ भौतिक प्रतिफल की सम्प्राप्ति का मार्ग समझ लिया गया है... बहुत बड़ा छलावा है, illusion है यह,... मनुष्य की इसी मनोवृत्ति का कुछ लोगों ने लाभ उठाया है, इस प्रकार की सौदेबाज़ी का बाज़ार तैयार किया गया है.... हमारी चेतना पर एक भय का, अज्ञानता का पर्दा डाला गया है ताकि हम सही तथ्य को जान ही न सकें.... ऐसा हमेशा से होता आया है इसलिए यह सब सत्य प्रतीत होने लगा है, लाभ लेने वाले धोखेबाज़ लोगों ने सबसे पहले तो यही बात हमारे ज़ेहन में पक्के तरीके से बैठाई कि लिखी गई, विद्वान लोगों की बात पर कभी अविश्वास नहीं करना है... तर्क नहीं लगाना है... नहीं तो यह धर्म विरुद्ध बात हो जायेगी और लोगों ने आँख मूँद कर उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया..... लाभ किसको हुआ....?? धार्मिक व्यापारियों को, धर्म गुरुओं को, भ्रामक धार्मिक साहित्य छापने वाले प्रकाशकों को... पण्डे-पुरोहितों को, टेलीविज़न को....फ़िल्मकारों को... टेलीविज़न पर बिकने वाले गंडे-ताबीज़-टोटके, ब्रेसलेट.... लाल किताब, पीली किताब... आदि इसी बाज़ार का हिस्सा है.... मतलब साफ़ है सबको पैसा चाहिए और आप धार्मिक तरीके से सुख समृद्धि ख़रीद सकेंगे... आप पुरुषार्थ नहीं धर्म के ज़रिये भी भौतिक रूप से सुख-समृद्धिवान हो सकते हैं.... भगवान को लुभावने ऑफर के जाल में फांसकर काम निकाल सकते हैं.... बाज़ार ने यही सिखाया है हम भक्त नहीं व्यापारी हो गए हैं, सौदेबाज़ हो गए हैं...

     मैंने देखा आजकल हमारे मध्यमवर्गीय घरों की महिलाओं में ‘’वैभव-लक्ष्मी’’ व्रत/उपवास का चलन है, वैभव लक्ष्मी व्रत पुस्तक की नियमावली में सबसे पहले लिखा है- व्रत पूरा होने पर कम से कम सात या आपकी इच्छानुसार जैसे 11,21,51,101... स्त्रियों को ‘’निर्धारित प्रकाशन की ही’’ वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक, कुमकुम का तिलक करके भेंट के रूप में देनी चाहिए जितनी पुस्तक आप देंगे उतनी माँ लक्ष्मी की कृपा होगी और माँ लक्ष्मी जी के अद्भुत व्रत का ज़्यादा प्रचार होगा.... ऐसा लग रहा है जैसे माँ लक्ष्मी से उक्त प्रकाशन ने सारे rights ख़रीद रखे हैं और माँ का ख़ुश होना उसी प्रकाशन की पुस्तकें बांटने पर निर्भर है..... सच्चाई यह है कि जब से देवी आदि शक्ति हैं तब छपाई आदि का आविष्कार भी नहीं हुआ था...यह सिर्फ़ भक्ति का व्यापार है.....

     जहाँ तक लिखी गई बातों का प्रश्न है तो मेरा कहना है यह बातें किसने लिखी हैं? हमारे आप जैसे मनुष्यों ने ही लिखी हैं, तो क्या उन्होंने अंतिम सत्य लिख दिया है....?  वह सारी बातें सही-सही जानते थे? उनसे कोई त्रुटि नहीं हो सकती? आज इक्कीसवीं सदी में विज्ञान, भाषा, सामाजिक नियमों, क़ानून आदि में आवश्यक संसोधन हुए हैं तो क्या धार्मिक बातों में संसोधन की कोई गुंजाइश नहीं है, विचार की कोई आवश्यकता नहीं है? क्या कुछ चालाक लोगों ने अपने फ़ायदे के हिसाब से उन लिखी गई बातों की व्याख्या नहीं की है?

     हमें बताया गया है कि- तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा........, मइया जी के नाम का जितना भी डालोगेनाम वाले बैंक से दुगना निकालोगे..... हो सकता है यह बातें दान को प्रोत्साहित करने के लिए कही गई हों.... लेकिन यदि दस लाख के लालच में एक पैसा और बैंक से दोगुना निकालने के लालच में दान किया गया है तो गड़बड़ है... यह धार्मिक कृत्य नहीं है.... इन्वेस्टमेंट है, व्यापार है....

     भक्ति क्या है.... मेरा विचार है भक्ति ईश्वर से, ख़ुद से साक्षात्कार का माध्यम है.... अपनी आत्मा की शुचिता बनाये रखने, अपने अंदर की इंसानियत को बरक़रार रखने, सद्मार्ग पर चलने हेतु भक्ति का सहारा लिया जाता है, इसमें भौतिक नहीं बल्कि आध्यामिक/आत्मिक लाभ... आत्मिक शांति की संकल्पना की गई है.... मेरा प्रश्न हलवा खिलाने को लेकर नहीं है.... दान श्रेष्ठ मानवीय कर्म है... ठीक है यदि ईश्वर ने हमें इस लायक़ बनाया है कि किसी दूसरे इंसान की सहायता कर सकें तो इससे बेहतर तरीक़ा क्या हो सकता है.... लेकिन किसी भौतिक लालच हेतु किया गया दान, दान की श्रेणी में रखना मेरे विचार से ठीक नहीं होगा....

     संक्षेप में कही इतनी बातें.... बातें बहुत सी बाक़ी हैं, बाक़ी रह ही जाती हैं .... सब कुछ कह पाना संभव नहीं होता.... विचार अपना, सोच अपनी, चेतना अपनी... परिभाषाएं अपनी... कूड़े में डालने योग्य हों तो यह भी ठीक रहेगा.....





रविवार, 7 अप्रैल 2013

नेतागीरी का चस्का


अबकी कइयौ महीना बाद गाँव गेन, आम की याक बाग है, जादा बड़ी नहीं है। स्वाचा धोवाय आई तौ लरिका-बच्चन का खाय-पियै भरे का आम होई जइहैं, औ जो ठीक-ठाक फसल होई गै तौ चार पइसौ मिलि जइहैं...

द्याखा बऊर तौ ठीकै-ठाक आवा है, सोचेन लगे हाथ गोड़ाई कराय के पानिऊ लगवा देई मुला याक समस्या होई गै..... गाँव मा तमाम खोजबीन कीन लेकिन मजूरै नहीं मिले…. सोचेन दुई-याक दिन रुकि कै यू काम करवाहेक लौटब औ जो कहूँ परते से सेरसौं मिलि जइहैं तौ कुंटल-खाँड़ लई ल्याब।

अगले दिन सबेरे नहाय-धोय के बिसम्भर कक्कू के घरै पहुँचि गेन। देखेन उनके घर के केवांड़ा बंद रहैं, हम उल्टे-पांव लउटि परेन तबहें गल्ली मा देखेन कक्कू हाथे मा लोटिया पकरे चले आ रहे हैं। हमका कुछ टैम पहिले की बात याद आ गै जब कक्कू ते कउनौ जैराम कक्कूकहि भर दे तौ बिगड़ि जात रहैं.... फिरौ हम तनिक सकुचात भै दूरै से कहेन- कक्कू जैराम!!

द्याखै मा लाग कक्कू बड़े खुस भे, बोले- जैराम महाट्टर भइया, तुम कबै आयेव? घर मा सब ठीक-ठाक?

हम कहेन कक्कू कल्हि आये रहन औ आपके आसिरबाद से घर मा सब मजे मा हैं..... हम आपै के घर ते आ रहे हन, देखेन केवांड़ा बंद रहैं...

-    अच्छा!! कउनौ खास बात?

-    खास बात तौ कोई नहीं बस आपके दरसन करइया रहन।

-    तौ चलौ तनी देर बैठा जाय....

(हम दूनौ जने टहलत भै उनके के घरै पहुंचेन)
कक्कू बोले- भईया तुम्हरी काकी के जाए के बाद हमरे घर की सब बेवस्थै गड़बड़ा गै है, द्याखौ घर कइस मसान होई रहा है।  

-    तौ आप औधेस क्यार बिहाव काहे नहीं कइ देतेव?

-    भईया औधेस की तौ हमते बातै न करौ, तुम तौ जनतै हौ वहिके रंग-ढंग, हमरे तो कहे मा कबहूँ नहीं रहा, फिरौ कबहूँ कुछ कहि देव तौ जूता-लात धरी है... भईया अब ई बूढ़े सरीर मा एत्ती ताब नहीं बची है कि लरिकवा की लाठी खाई...

-    कक्कू या तौ औधेस की बड़ी नलायकी है....

कक्कू थोड़ा इमोसनल होई गे, बोले- पता नहीं यू कुधरमी हमरे घर मा कहाँ ते पैदा होई गा, अबहीं दुई तीन महिना पहिले बियाहे बदि उदमादे रहैं, दुई-याक जगा बातौ चली मुला मामला फिट नहीं होई पावा औ अब ससुरऊ कहत हैं हम बिहावै न करिबे।

-    काहे, बिहाव काहे न करिहैं?..... कउनौ बिटेवा पसंद कीन्हे होय तौ हुवैं कइ देव...

-    नहीं अइस बात नहीं है, आजकल उनके दिमाग मा नेतागीरी क्यार भूत सवार है, घर मा खाए क्यार ठिकान नहीं औ सरऊ कहत हैं परधान बनि कै सब फिट कई ल्याब तबहें बिहाव करब.... दिन्नु भर हियाँ ते हुवां मारे-मारे फिरत हैं, न कउनौ काम न धाम।

-    यू नेतागीरी क्यार चस्का कहाँ ते लागि गवा?

-    अरे रामचन्दर परधान खुवां बैठक रहै ईकी.... उनक्यार टैट्टर चलावत रहै, ई चक्कर मा कि परधान कउनौ कालोनी-वालोनी दई द्याहैं.... नरेगा-फरेगा मा कहूँ नऊकरी क्यार जुगाड़ बनइहैं...... मुला तुम तौ जनतै हौ परधान एक नंबर के *#@**!#.... कइयौ साल ते टरकावत रहैं.... एक दिन भईया तउवाय गे, परधान ते कहेन इस्कूल के पाछे वाली गराम समाज की जमीन मा बिसुआ भर जमीनै दइ देव तौ परधान कानून पढ़ावै लाग. भईया कहेन तौ फिर हमार डराइबरी क्यार हिसाब कइ देव...... एत्ते मा परधान उखड़ि गे, गरिया के भगा दीन्हेन, कहेन- सरऊ डराइबरी ते जादा तौ बाप-पूत दारु पी चुके हौ....... अब हमरे दुवारे देखा न परि जायेव. बस भईया उई दिन ते लरिकवा पगला गवा है.... कहत है- अइसी की तइसी, हमहूँ परधानी क्यार अलेक्सन लड़बै... औ रामचंदर क्यार दिमाग ठिकाने लगा देबे।

-    अरे कक्कू वहिका समझाओ-बुझाओ, या परधानी-वरधानी सबके बस की बात नहीं, ब्वारन पइसा लागत है... गरीब-गुरबन के खेल न आंय ई सब.... औ दुस्मनी अलग ते बंधि जाई.... आप क्यार अक्याल लरिका!!!

-    भईया हम तौ समझा-समझाय के हारि गेन तुमहीं कुछ करौ.... अबहीं महिना भर पहिले दूनौ भइंसी बेचि डारेस औ कहूँ ते पुरान बुलट लावा है......

-    अरे सही कक्कू .... दूनौ भइंसी बेचि डारेस??

-    अरे न पूछौ सब चापर करै मा लाग है यू सत्यानासी... घर मा दुई ठईं छगड़ी बची हैं, देखेव कउनौ दिन इनहुन का लई डारी....

-    औ कक्कू कमाई-धमाई?

-    कमाई धमाई का.... बस झाड़-फूंक करिकै थ्वारा-बहुत नाजु-पानी मिल जात है, तुम तौ जनतै हौ थोरी-बारी जमीन है मुला अब हमते खेती-किसानी सधति नहीं..... मंगरे का बंटाई दीन्हे हन....

-    औ औधेस?

-    औधेस..... औधेस तौ घर मा चारि आनौ नहीं देत.... भगवान जाने का करत है का नहीं.... जउन पइसा कमात है पिटरोल औ मोबैल मा फूंकि डारत है.....

-    कक्कू आपकेर समस्या तौ सही मा बड़ी कठिन है, द्याखौ औधेस मिलैं हम बात करिबे...

-    करि लेव, तुमहूँ बात करि के तसल्ली कल्लेव....  इधर पन्द्रा-बीस दिन ते घर मा एक नवा टंटा डारे है...

-    टंटा...... कइस टंटा?

-    अरे जटासंकर( बिसंभर के भाई) क्यार लरिकवा, महेन्दर लैसेन्सी पिस्तौल लावा है तब ते भइया रैफल के पाछे परे हैं, कहत हैं अलेक्सन लड़ना है ई लिए यू सब बहुत जरूरी है..... हम डीयम औ थाने मा सब जुगाड़ भिड़ा लिया है....

-    अरे औधेस क्यार दिमाक खराब होई गा है का.... अलेक्सन क्यार बन्दूक ते का सम्बन्ध?

-    वहै तौ हमहू कहित रहै.... हम जानित है उनके काहे किरवा काटि रहा है.... चच्चू क्यार लरिका पिस्तौल लावा है तौ उई काहे पाछे रहि जाएँ....

-    सही कहत हौ कक्कू यहै बात होई....

-    हाँ अऊर का!! अरे ई नालायक के चक्कर मा हियाँ पुलिसौ आ चुकी है.... औ भईया तुम तौ जनतै हौ हम थाना-पुलिस ते केत्ता घबड़ाइत है....

-    पुलिस...!! पुलिस काहे आई रहै?

-    अरे यू रैफल क्यार लैसेन्स बनवावै खातिर फारम जमा कीन तइस वही केर जाँच आई रहै...

-    अच्छा-अच्छा ... हाँ फारम की तो जाँच होती है।

अब कक्कू के चेहरे पर फिर ते दरद छलकि आवा, बोले- भईया जाँच के बाद तौ औधेस अइस महनामति कीन्हेस कि पूछौ ना..... कहै लाग रैफल ले खातिर दखिनै वाली दुई बिगहा जमीन बेचि डारौ.... हम तौ साफ मना कइ दीन, भईया पुरिखन की एत्तिही जमीन बची है या तौ हम कौनिउ कीमत पर न ब्याचब..... चाहे जउन होई जाए.. (बात पूरी करत-करत कक्कू के नथुना फड़कै लाग) ससुरऊ कहत हैं तुम्हरे बाद सब हमरै तौ है तौ फिर हमार चीज ब्याचै मा तुमका कौन तकलीफ...... अरे एक बार परधानी घर मा आ जाए देव, अइस तमाम जमीन होई जाई.

-    गलत बात... बहुत गलत बात!!! कक्कू आप चिंता न करौ, हम औधेस ते बात करब... हाँ कक्कू आपते एक बात कहा चहित रहै....   

-    हाँ.. हाँ बिलकुल कहौ भईया...

-    कक्कू अबकी हमरी बाग मा बऊर तौ ठीक-ठाक आवा है.... थ्वारा काम करवावैक रहै मुला मजूरै नहीं मिले गाँव भरे मा...

-    अरे भईया मजूर हियाँ न मिलिहैं.... नरेगा मा सबके खाता हैं मुला काम-धाम कउनौ नहीं करत.... द्याखौ दुई-याक जने हैं कल्हि बात करिकै बतइबे...

-    ठीक है.... औ कक्कू आप का जादा तकलीफ होय तौ हम बाग मा मड़इया डरवा देबे.... तले दुई तीन महीना बाग बचायेव... हम खर्चा-पानिहू दइ देबे..

-    ठीक है महाट्टर भईया.... द्याखौ औधेस ते बात करि कै बतइबे....

हम कक्कू ते बिदा लई के हुवां ते निकरित रहै कि तबहीं उनके दुवारे याक बुलट मोटरसैकिल रुकी, बुलट पर तीन लंउडे सवार रहैं.... लल्लनऔधेस औ परताप!! 

औधेस क्यार हुलिया बिलकुल बदला-बदला रहै..... पैंट ते बाहर बगल मा कट वाली सफेद बूसट, पइजामा कट की सफेद पैंट, गले मा रुद्राच्छ की माला औ अंगुरिन मा दुई-तीन रंग-बिरंगी अंगूठी.... हुलिया नवा रहै मुला मुँह वहै पुरान पिचका वाला....

गाड़ी स्टैंड मा लगावैके के बाद हमका देखि कै अवधेस पिच्च ते गुटखा की पीक एक तरफ मुँह करिके थूकेन, जेब ते मोबैल निकारि के हाथे मा पकरि लीन्हेन औ हमरी तरफ हाथ बढ़ावत भै बोले- दद्दा परनाम.... हम तनिक अचकचा गेन औ हाथ बढ़ा दीन।

औधेस बोले- और दद्दा सब ठीक-ठाक, गाँव कइसे आना भवा?(हम महसूस कीन औधेस भोजपुरिया टोन मा ब्वालै की कोसिस कई रहा है)

-    सब ठीकै है.... बस गाँव क्यार राव-चाव ले आये रहन...

-    और बताओ नउकरी-चाकरी सब ठीक चल रही है, कउनौ दिक्कत तौ नहीं?

-    नहीं सब चकाचक चलि रहा है।

-    कोई दिक्कत होय तौ बतायेव.... भउकाल है आपका, डीयम, यसडीयम सब जानत हैं हमको....(पिच्च)... छोटे भाई के होते कोई दिक्कत न होएक चही आपका

-    हाँ-हाँ काहे नहीं.... अउर बताओ का चल रहा है आजकल?

-    बस दद्दा... आपके आसिरबाद से अबकी अलेक्सन की तयारी चल रही है... कक्कू बतायेन होइहैं..

-    हाँ... बतायेन है...

-    तौ दद्दा अबकी आपका आसिरबाद चही.... आपके बिना परधानी की सीट आपके घर मा न आ पाई।

-    बिलकुल हम तौ हमेसा तुम्हरे साथ हन....

-    दद्दा देखे रहेव.... अबकी सारी सेटिंग आपैक करना है.... औ फिर हम आपके घरौ अइबे भउजी का आसिरबाद ले खातिर....

-    हाँ काहे नहीं...

-    अरे दद्दा आप सहर जायेव तब हम आपका फोन करि कै फाइल नंबर बता देबे, अरे ऊ रैफल का फारम डारेन है न.... तनी डीयम दफ्दर मा देखे रहेव औ बतायेव.....का पोजीसन है.... किरपाल बाबू हैं हुवां.... असलहा बाबू!, जानत हैं हमका.... हमार नाव बतायेव उनते.... तड़ाका बतइहैं सब कुछ....

औधेस की बातैं सुनि कै हमार तौ मूड़ पिराय लाग हम कहेन-  अच्छा ठीक है जब छुट्टी मिली तब देखि ल्याब.... 
अच्छा औधेस अब हम चलित है फिर घरै आयेव तौ बिस्तार ते बात होई...
ठीक है दद्दा..... लेकिन भूलेव ना.... आपै के भरोसे अलेक्सन लड़ना है..... हमारि जीत आपै केरि जीत होई....

-हाँ बिलकुल काहे नहीं.... छोट भाई हौ अपन....

- अच्छा दद्दा परनाम....

-खोस रहौ भईया....

हम बहुत तेजी के साथ बिदा लीन.... याक बात देखेन बिसंभर कक्कू औधेस का देखि के घर ते बाहर नहीं निकरे, सायद ई बात ते डरा रहे होइहैं कि कहूँ औधेस हमरे सामने उनकी बेज्जती न करि दे।

  

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

इश्क़ में......


स्याह रातों पे मेरी, तेरे ख़्वाबों का पहरा है
रोज़ देखते हैं हम, यह ख़्वाब सुनहरा है

अब मान जाइए यूँ जलवे न बिखेरिये
रहम कीजिये, अभी ज़ख्म ज़रा गहरा है

दिल के टूटने की खनक, संगीत समझिए
मुहौब्बत का सबक़ है ये इश्क़ का ककहरा है

अभी ज़रा रुकिए, यूँ दिल में न जाइए
इक दर्द है मेरे दिल में, जो बरसों से ठहरा है

मेरी तनहाइयों में अब शोर-गुल तमाम है
सरे-राह, बाज़ार में सन्नाटा सा पसरा है

मुहौब्बत आदत है पुरानी, अब छूटती नहीं
ये दिल है बड़ा पगला, न सुधरेगा,न सुधरा है

यूँ मुहौब्बत से मुझसे, मत पेश आइये
मुश्किल से जां बची है, जाने का ख़तरा है

चाहत हो ख़ुदकुशी की, तो इश्क़ कीजिये
पसंद आये तो लीजिए, मुफ़्त मशविरा है